सुहागन विधवा
ऊषा फाटक को पहचान कर रुक गई। बिल्कुल वैसा ही फाटक तो है जैसा सविता ने उसे बताया था। लोहे की छड़ों को जोड़कर बनाया हुआ फाटक और उस पर हरे रंग का पेन्ट, सविता ने यही पहचान तो बतायी थी अपनी कोठी की। उसने नज़रें उठाकर देखा, सामने ही लिखा था—“ऊषा सदन।”
“ऊषा सदन।” वह मन ही मन बड़बड़ायी—“ऊषा सदन।”
किसका नाम हो सकता है यह? सविता तो अपने मम्मी पापा की इकलौती सन्तान है, फिर कोठी का नाम....? सविता की मम्मी का भी तो यह नाम नहीं। फिर “ऊषा सदन”....?
वह सोचती हुई अन्दर की तरफ प्रवेश करने लगी जैसे ही अन्दर की तरफ प्रविष्ट होने लगी वैसे ही कोठी के दरबान ने टोक दिया। बोला—“ऐ लड़की! अन्दर कहां घुसी चली जा रही हो?”
दरबान की आवाज सुनकर ऊषा ठिठक गई। उसने दरवाजे की तरफ देखा और बोली—“मुझे अन्दर जाना है।”
“मगर क्यों जाना है?”
“मुझे सविता से मिलना है।”
“यह सब तो ठीक है, मगर....।” उसका वाक्य अधूरा ही रह गया। क्योंकि उसका वाक्य पूरा सुने बगैर ही ऊषा आगे बढ़ गयी थी।
दरबान दो कदम आगे बढ़ गया और कुछ ऊंची आवाज में बोला—“अरे मगर सुनो तो।”
ऊषा पुनः ठिठक कर रुक गई मुड़कर अपनी ओर आते दरबान की ओर देखने लगी।
दरबान उसके करीब आकर ठहर गया और बोला—“लेकिन आप हैं कौन?”
“मेरा नाम ऊषा है, मैं....।”
“नाम चाहे जो भी हो, मगर आप जा कहां रही हैं?”
“मैंने बताया न कि मुझे सविता से मिलना है।” कहकर वह पुनः आगे बढ़ गई। दरबान लपक कर उसके आगे जा खड़ा हुआ और निर्णायक स्वर में बोला—“आप अन्दर नहीं जा सकती।
“क्यों?”
“क्योंकि मालिक का आदेश है कि किसी को भी बिना इजाजत अन्दर नहीं जाने दिया जाये। आप बाहर निकल जाइये।”
“लेकिन वह मेरी सहेली....।”
“कुछ भी हो, मैं आपको अन्दर....।”
तभी एक बारीक किन्तु तेज आवाज सुनायी पड़ी—“दरबान आने दो इन्हें।”
दरबान ने नज़रें उठाकर सामने देखा और चुपचाप रास्ता छोड़कर हट गया। ऊषा ने यह आवाज पहचान ली थी यह आवाज उसकी सहेली सविता की थी। उसने पलकें उठाकर देखा—उसकी सहेली सामने ही रेलिंग पर खड़ी हुई थी और उसे पुकार रही थी—“ऊषा, आओ ना। रुक क्यों गईं?”
सविता को देख ऊषा तनिक मुस्कुराई। फिर उसके पैर आहिस्ता-आहिस्ता अन्दर की ओर बढ़ चले वह बरांडे में पहुंची वैसे ही सविता उसके सामने आ खड़ी हुई। उसने मुस्कराकर ऊषा का स्वागत किया और धीमे स्वर में बोली—“आखिर आज तुम्हें मेरे घर का रास्ता मिल ही गया।”
“रास्ता तो मिल गया था, लेकिन यह दरबान....।”
“तुमने कहा नहीं था कि हम दोनों दोस्त हैं?”
“कहा तो था, लेकिन वह मानता तब न? कहने लगा कि मालिक का आदेश है कि किसी को भी बिना आज्ञा अन्दर न आने दिया जाये।”
सविता ऊषा का हाथ थामकर अन्दर की ओर चल पड़ी।
रास्ते में वह दरबान की तरफ से सफाई पेश करती हुयी बोली—दरअसल बाबूजी से मिलने कुछ ऐसे लोग चले आते हैं, जिन्हे वे पसन्द नहीं करते। इसलिए उन्होंने दरबान को ऐसा बोल दिया होगा और फिर उसने तुम्हें पहले कभी देखा भी तो नहीं था। अब जब भी तुम आओगी। वह कभी तुम्हें नहीं रोकेगा।”
सविता बातें करती हुई अपने कमरे में पहुंच गई थी। वह ऊषा को लेकर सोफे पर बैठ गई। ऊषा उसके तर्क से संतुष्ट थी। क्योंकि जो बात सविता ने कही थी, वह थी भी तो सच ही। आज वह पहली बार ही तो वहां आई थी। फिर दरबान उसके बारे में कैसे कुछ जान सकता था।
“बोलो। क्या पिओगी?” कुछ क्षणों पश्चात् सविता ने उससे पूछा।
“कुछ भी नहीं।”
“बाकी बातें बाद में, पहले मैं तुम्हारे लिए....।” कहकर सविता उठने लगी।
“प्लीज सविता....मुझे बहुत जल्दी है। अगर मैं खाने-पीने के चक्कर में लग गयी तो मेरा काम खराब हो जायेगा। तुम बैठो और मेरा एक काम करो।”
सविता उठते-उठते बैठ गई। उसने गौर से ऊषा की ओर देखा। वह एकदम सीरियस नज़र आने लगी थी। उसकी समझ में नहीं आया कि ऐसी कौन-सी बात हो सकती है, जिसके कारण ऊषा एकदम गम्भीर होकर रह गई है। वह एक क्षण उसे देखती रही, फिर बोली—“क्या बात है? घर में सब लोग ठीक-ठाक तो हैं ना?”
“हाँ सब ठीक हैं। लेकिन क्यों? तुमने अचानक ऐसा प्रश्न क्यों किया?”
“तुम आज कुछ आवश्यकता से अधिक सीरियस नज़र आ रही हो, इसलिए पूछ लिया था। अच्छा बताओ कि तुम किस काम की बात कर रही थीं?”
“आज फिर मुझे तुम्हारी एक खूबसूरत सी साड़ी चाहिये।” ऊषा ने अपने आने का मकसद साफ तौर पर बता दिया।
“बहुत जल्दी है क्या?”
“हां....जल्दी तो है। यूं समझो कि पांच मिनट के अन्दर-अन्दर मुझे यहां से चल पड़ना चाहिये। अन्यथा मेरा यहां आना कम-से-कम आज के लिए तो बेकार होकर रह जायेगा।”
सविता ने फिर उससे कोई प्रश्न नहीं किया। करती भी तो बेकार ही रहता। क्योंकि वह जानती थी कि इस समय ऊषा पूछने पर भी कुछ नहीं बतायेगी। ऐसा उसके साथ पहले भी कई बार हो चुका था। अन्तर केवल इतना था कि पहले सविता उसकी मांग पर साड़ियाँ लेकर उसके घर जाती रही थी और आज वह स्वयं सविता के घर साड़ी मांगने चली आई।
पहली बार सविता उसके घर साड़ी देने गई थी तो पूछा था उसने—लेकिन आज तुम्हें साड़ी पहनने की इच्छा कैसे हो आई? पहले तो तुम कभी साड़ी नहीं पहनती थीं?”
“बस ऐसे ही इच्छा हो आई। देखती हूं साड़ी में मैं कैसी लगूंगी।”
उस दिन कहकर ऊषा ने उसे टाल दिया था। सविता ने उससे पूछने की कोशिश की थी, मगर उसने दूसरी बात कही ही नहीं थी, इसलिए वह हार-थककर वापिस लौट आई थी, और फिर जब कभी उसने उससे साड़ी की मांग की, तो उसने चुपचाप साड़ी पहुंचा दी थी और लौट आई थी और कुछ समझ में नहीं आया तो उसने उसे उसका शौक समझ कर मस्तिष्क से निकाल दिया था और फिर इस बारे में कभी कुछ जानने या पूछने की कोशिश भी नहीं की थी।
आज भी उसने चुपचाप उसकी बात मान ली। उसे साथ ले जाकर उसने कबर्ड के सामने खड़ा कर दिया और कबर्ड खोलकर अलग हटती हुई बोली—“ले लो, जो साड़ी तुम्हें चाहिए अच्छी लगे।”
ऊषा कुछ क्षणों तक कबर्ड में टंगी साड़ियों को निहारती रही। कबर्ड में बहुत सारी साड़ियाँ टंगी हुई थीं। शायद वह उसमें से अपनी मनपसंद साड़ी का चुनाव करने लगी थी।
उसे चुपचाप खड़े देख सविता ने पूछा—“क्यों? पसंद नहीं आई कोई?”
ऊषा अभी तय नहीं कर पाई थी कि उसे कौन-सी साड़ी निकालनी है, इसलिए कविता की बात का कोई उत्तर न देकर वह चुप रही। “अगर इनमें से कोई पसन्द नहीं आयी तो चलो बाजार से नई साड़ी खरीद लो?”
तभी ऊषा ने एक गुलाबी रंग की साड़ी निकाल ली। उसने उसे अपने पैरों के सहारे लटका कर देखा-सुन्दर लगी। सविता ने उसके साथ का ब्लाऊज भी निकालकर उसे थमा दिया और कबर्ड को बन्द कर, पलंग पर अधलेटी सी जा गिरी।
ऊषा ने बैलबाटम और कमीज पहनी हुई थी। साड़ी और ब्लाऊज सोफे पर डाल, वह कमीज उतारने लगी।
सविता चुपचाप बैठी उसे देख रही थी। हालांकि उसके ऐसा करने का कारण वह नहीं समझ पा रही थी, लेकिन फिर भी उसने जानने या पूछने की कोशिश नहीं की। बस-चुपचाप बैठी देखती रही।
ऊषा कमीज उतार चुकी थी। उसने बैलबाटम की जिप खींच दी और उसे एक झटके से निकाल कर लापरवाही से सोफे पर फेंक दिया।
सविता अपलक उसके शरीर को देखे जा रही थी। कच्छे और ब्रा में वह उसे बेहद सुन्दर लग रही थी। उसने एड़ी से चोटी तक उसके अंगों की पुष्टता की ओर देखा और फिर अनायास ही उसके होठों से निकल पड़ा—हाऊ स्वीट....काश। मैं भी इतनी सुन्दर होती?
हालांकि वह भी कम सुन्दर नहीं थी लेकिन यह भी सच था कि ऊषा उससे कहीं अधिक सुन्दर थी।
ऊषा....?
वह गरीब मां-बाप की बेटी थी। लेकिन उसकी बचपन की दोस्त थी। वह उसे अपने आपसे भी ज्यादा प्यार करती थी। अपनी सामर्थानुसार वह उसकी किसी भी इच्छा को नहीं टालती थी। जब वह छोटी क्लास में पढ़ती थी तो उन दोनों की दोस्ती पर उसके बाबूजी ने एतराज उठाया था। कहा था कि “बेटी यारी दोस्ती बराबर वालों से अच्छी लगती है। छोटे लोगों से दोस्ती करने से हमारी बदनामी होगी। तुम उस लड़की से मत मिला करो।”
लेकिन सविता ने किसी की भी परवाह नहीं की। उसने साफ-तौर पर कह दिया था कि वह किसी भी सूरत में ऊषा से मिलना नहीं छोड़ सकती। इकलौती बेटी थी, इसलिए उसकी बात मान ली गयी। यही नहीं, उसकी सभी इच्छाओं के सामने उसके बाबूजी को हार माननी पड़ती थी। रही मां। सो मां का बस चल जाये तो वह अपने बच्चों की जिद पर चांद सितारों को भी जमीन पर उतार लाये। यह भी सविता की जिद ही थी कि उसकी कोठी पर ‘सविता सदन’ खुरच कर ‘ऊषा सदन’ लिखा गया था। उसके बाबूजी ने उसे बहुत समझाया था उस समय। कहा था—“बेटी। अपने मकान पर किसी दूसरे का नाम लिखा जाता है भला? तुम क्यों ऐसी बात की जिद कर रही हो, जिसे माना नहीं जा सकता।”
“क्यों नहीं माना जा सकता?” सविता ने झुंझलाकर पूछा था।
“क्योंकि यह कोठी तुम्हारी है, इसलिए इस पर नाम भी तुम्हारा ही होना चाहिए।”
“नहीं। ऐसा करने से ऊषा के दिल को दुःख पहुंचेगा।”
“किसलिए?”
“इसलिए कि उसका बाप पैसे वाला नहीं है। वह उसके लिए ऐसा मकान नहीं बना सकता, जिस पर उसका नाम लिखा हो।”
“अगर उसका बाप नहीं बना सकता तो इसमें मैं क्या कर सकता हूं।” सविता के बाबू जी झुंझला उठे थे, “जिद मत करो जाओ यहां से।”
तब सविता रो पड़ी। वह जाकर अपने पलंग पर गिर पड़ी। वह रो रही थी....रोती रही। मां ने उसे चुप कराने की कोशिश की, लेकिन माँ का सामीप्य पा वह और भी जोरों से रोने लगी। हार थककर उसने अपने पति को समझाया। कहा था—“जाने भी दीजिये ना। आप ही मान जाइये।”
“तुम क्या चाहती हो। मैं अपनी उस कोठी पर उस भिखमंगी छोकरी का नाम लिखवा दूं?”
“नाम ही तो लिखा जायेगा, कोठी तो उसकी नहीं हो जायेगी।”
“नहीं बिल्कुल नहीं। मुझे बेकार की बातें समझाने की कोशिश मत करो। इस लड़की की जिद के सामने मैं अपना मान-सम्मान नहीं छोड़ सकता। तुम यहां से....फिजूल की बातें मत करो।”
वह भी अपने नाम की सविता थी। उसकी उम्र उस समय बारह वर्ष की रही होगी। लेकिन थी जिद की पक्की। उसने उस समय तक अपने बाबूजी से बात नहीं की, जब तक उन्होंने सविता का नाम खुरचवाकर ऊषा का नाम नहीं खुरचवा दिया था।
अब तो वह जवान हो चली थी। उसके साथ-साथ ऊषा भी जवानी की दहलीज पर पैर रख चुकी थी। उसकी उम्र लगभग अठारह साल, लालिमायुक्त सांवला रंग, एक-एक अंग ऐसा जैसे किसी मूर्तिकार ने नाप-तौल कर तराशा हो।
गुलाबी साड़ी और उसी रंग के ब्लाउज में वह गुलाब के फूल की तरह खिल उठी। आइने के सामने खड़े होकर उसने अपने प्रतिबिम्ब को निहारा, तो मुस्कुरा उठी।
“किसकी मौत आई है आज?” सविता बोल पड़ी।
“मतलब?” ऊषा ने पलटकर सविता की ओर देखा।
“मतलब....यह सुन्दरता और उस पर यह लिबास। कसम से कयामत नज़र आ रही हो। कोई देखेगा तो मर मिटेगा। आखिर कौन है वह?”
“कोई है....।” ऊषा के मुंह से निकल पड़ा। जाने कैसे कह गई वह अन्यथा उसने तो सोच लिया था वह अभी किसी से कुछ नहीं बतायेगी। उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह कह उठी—“कोई भी नहीं। जाने कैसी बात करने लगती हो तुम?”
“अब ज्यादा बनो भी मत। बोल ना कौन है वह? जिसके व्यक्तित्व ने तुम्हें बनने संवरने को विवश कर दिया है। बोल, तुझे मेरी कसम।”
“अभी नहीं। लौटने पर बताऊंगी। अभी तो पहले ही लेट हो रही हूं।”
“इस तरह बहानेबाजी....।”
“नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं। जिसके कारण मैं यह सब कर रही हूं, यदि लेट हो गई तो वह नहीं मिल सकेगा।” कहकर ऊषा बाहर की ओर चल पड़ी, उसने अपने कपड़े वहीं पर छोड़ दिये।
जिन्हें सविता ने सौफे पर से उठा लिया था।
“लौटकर तो बताओगी ना?”
“हां।” कहती हुई वह दरवाजे से बाहर निकल गई।
ऊषा चली गई कमरे में सविता अकेली रह गई। उसका मस्तिष्क तेजी से सोचने लगा-ऊषा के बारे में, उसके उस प्यार के बारे में, जिसमें वह अचानक गिरफ्तार हो गई थी, अन्यथा कुछ दिन पहले तो वह प्यार के नाम से भी चिढ़ती थी, कह दिया करती थी-“प्यार ही क्या है? किसी का तुमसे मतलब निकलता है तो वह तुम्हें प्यार करने का दम भरने लगेगा अन्यथा मुड़कर भी नहीं देखेगा तुम्हारी ओर। इस मतलबी संसार में मतलब का ही या यूं कहिये कि खुदगर्जी का ही दूसरा नाम प्यार होता है। इसी भुलावे में हर कोई किसी को धोखा दिये चला जा रहा है। अब मुझे ही देख लीजिए ना। मुझे तुमसे सहारा मिलता है तो मैं भी तुमसे प्यार करने का दम भरती रहती हूं, नहीं तो कौन जाने मेरे मन में क्या है?”
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