मैं कौन हूँ
राकेश पाठक
ओह ऽ ऽ ऽ आह ऽ ऽ ऽ !
उसके मुंह से हल्की-हल्की चींख निकल रही थी। उसकी पलकें कांप रही थीं। धीरे-धीरे करके उसने आँखें खोलीं। उसने धूप में धुले नीले आसमान को घूरा। वह लगभग पांच मिनट तक यूं ही पत्थर की बेंच पर लेटा रहा।
एक झटके के साथ वह उठ बैठा। उसके पैर के तलुवे नर्म घास पर रखी चमड़े की स्लीपर्स से स्पर्श हुए। उसने अन्जाने भाव के साथ स्लीपर्स में पैर डाले। उसने इधर-उधर दृष्टिपात किया। उसे मालूम पड़ा कि वह किसी बाग की बेंच पर बैठा हुआ था. दोपहर का समय था शायद। बाग में सन्नाटा छाया हुआ था। दूर ‒ दरांज तक कोई प्राणी नजर नहीं आ रहा था।
लेकिन वह इस जगह कब, कैसे और क्यों आया था?
वह सोच में पड़ गया। उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था। वह यह भी नहीं समझ पा रहा था कि यह बाग कौन सा है और कहां पर है?
यकायक ही वह उछल कर खड़ा हो गया। उसे अपना दिल बहुत तेज धड़कता महसूस हो रहा था। जिस्म पसीने में भीग उठा। उसके जेहन में अप्रत्याशित ढंग से एक सवाल उठा था ̶ मैं कौन हूं?
लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं आ रहा था। वह दिमाग पर जोर डाले सोच रहा था कि मैं कौन हूं? मेरा अतीत क्या है? मैं यहां कैसे हूं ? मुझे अपने बारे में कुछ भी याद क्यों नहीं आ रहा है?
उसकी मनोदशा दयनीय हो उठी। लगभग रोने सा ही लगा। वह उस पर घबराहट हावी होती जा रही थी। क्योंकि वह अपने बारे में जानने को उत्सुक था, और उसे अपने बारे में कुछ भी पता नहीं लग पा रहा था।
लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है ? मुझे अपने बारे में कुछ याद क्यों नहीं आ रहा है ? कहीं...कहीं मेरी याददाश्त तो नहीं खो गई ?
“नहीं...।” याददाश्त खोने की कल्पना करते ही उसके मुख से स्वत: ही चींख निकल पड़ी।
“नहीं...नहीं...म...मेरी याददाश्त नहीं खो सकती। मेरी याददाश्त नहीं...।” बुदबुदाता हुआ वह सिसक पड़ा।
लेकिन...ऐसा क्यों हुआ? मेरी याददाशत भला क्यों चली गयी? जबकी...जबकि मेरे सिर पर जरा भी चोट नहीं लगी, न ही मेरे सिर में कोई पीड़ा ही है। फिर बिना चोट के मेरी याद...?
ओह भगवान...मैं कौन हूं? मेरा नाम क्या है? मैं कहां का रहने वाला हूं? और...यह बाग, यह जगह कौन सी है?
वह दोनों हाथों से सिर को थाम कर बेंच पर बैठ गया। और–“मैं कौन हूं?” सवाल का जवाब खोजने की कोशिश में लीन हो गया।
सोचते–सोचते उसका सिर पके फोड़े के समान टीसने लगा। लेकिन वह यह जानने में असफल ही रहा कि मैं कौन हूं?
अतीत की तलाश में भटकते हुये लगभग एक घन्टा बीत गया उसे। एक तो वह याददाश्त खो चुका था, दूसरे वह अपने अतीत के बारे में जानने के लिये बेचैन था...उसकी स्थिति काफी खराब हो चुकी थी।
वह इतना एब-नार्मल हो चुका था कि वह उसे यह भी नहीं सूझ पा रहा था कि वह अब क्या करे?
¶¶
कुदरत की नीति के समक्ष वह पराजित हो गया। उसे यह मानना पड़ा कि उसके सोचने पर भी अतीत याद नहीं आयेगा। रोते हुये मन के साथ उसने सोचना बन्द किया। उसने सबसे पहले स्वयं को सम्भाला। अब वह वर्तमान के बारे में जान लेने का इच्छुक था। पहले उसने वह जान लेने का निश्चय किया कि वह इस वक्त कहां है?
वह मरियल कदमों से बाग से बाहर आया। बाग के बाहर एक बोर्ड पढ़कर उसने जाना कि वह सहारनपुर के कम्पनी बाग में होश में आया था। बोर्ड पढ़ने पर उसे मालूम हुआ कि वह पढ़ना जानता है और शायद लिखना भी। उसे बेहद कमजोरी महसूस हो रही थी। उसकी निगाह सड़क पार की चाय की दुकान पर पड़ी। उसने चाय की तलब महसूस की। लेकिन पीने की बात बाद में...पहले चाय के पैसे होने भी तो जरूरी थे।
उसने पेन्ट की जेब में हाथ डाला। उसकी मुट्ठी में कुछ नोट दबे थे। उसने गिने तो पूरे ढाई सौ रुपये थे।
चाय की दुकान खाली पड़ी थी। उसने बेंच पर बैठते हुये चाय का ऑर्डर दिया। चाय आने तक वह आस-पास की दुकानों पर दृष्टिपात करता रहा। दुकानों के बोर्ड पर “बेहट अड्डा” लिखा हुआ था।
चाय पीते-पीते उसके मन में एक ख्याल आया। कहीं वह सहारनपुर का रहने वाला तो नहीं? यदि वह यहीं का रहने वाला है तो बहुत से लोग उसको पहचानते होंगे। और यदि किसी ने उसे पहचान लिया तो उसकी सारी समस्या सुलझ उठेगी। वह जान जायेगा कि वह कौन है, उसका घर कहां है।
इस नये विचार पर वह खुशी के मारे उछल पड़ा। उसके दिमाग ने नयी राह दिखलाई थी।
उसने सोचा कि यदि मैं राह चलते लोगों से सवाल करूंगा कि मैं कौन हूं...तो लोग मुझ पर हंसेंगे। पागल कहेंगे मुझे। इससे अच्छा यही होगा कि मैं शहर की मुख्य रोड और मार्केट में घूमूं। कोई तो जानकार टकरायेगा ही। और वह मुझसे बात भी करेगा। बस....मेरा काम हो जायेगा।
मारे खुशी के वह यह भी भूल गया कि उसकी याददाश्त खोई हुई है।
उसने ढाई सौ रुपये में से एक रुपये का नोट अलग किया और चाय विक्रेता को दिया। चालीस पैसे लेकर वह दुकान से बाहर निकला। अचानक ही वह बुरी तरह चौंका। उसे यूं महसूस हुआ कि चाय विक्रेता उसे घूर रहा है। शायद वह उसे पहचानता हो।
“स...सुनो भाई—।” वह पलट कर विनम्र भाव से पूछ बैठा—“तुम मुझे क्यों घूर रहे थे भला—?”
विक्रेता हड़बड़ा गया। वह सम्भलते हुये बोला—“नहीं बाबू जी...ऐसी बात नहीं है। मैं तो आपको पहचानने की कोशिश कर रहा था।”
“क्या—?” वह खुशी से उछल पड़ा, कंपकपाते स्वर में पूछा—“त...तुम मुझे पहचानते हो? तुम जानते हो कि मैं कौन हूं? अगर हां-तो भगवान के लिये जल्दी से बताओ।”
विक्रेता हड़बड़ा उठा उसके व्यवहार पर। वह हड़बड़ाते हुये बोला—“न जाने आप कैसी बात पूछ रहे हैं बाबू जी। आप तो ऐसे पूछ रहे हैं...मानो आपको भी पता न हो कि...आप कौन हैं?”
“हां भाई—।” वह भर्राई आवाज में मरियल से स्वर में बोला—“तुम सच ही कहते हो। मुझे वाकई ही नहीं पता कि...मैं कौन हूं। मुझे तो कुछ देर पहले ही कम्पनी बाग में होश आया है। शायद तुम मुझे जानते हो...।”
“क्या...?” विक्रेता का मुंह खुला का खुला रह गया—“आपकी याददाश्त चली गई है?”
“हां...।” उसने शर्ट की आस्तीन से आंख में भर आये पानी को पोंछा, बोला—“तुम तो समझ ही सकते हो कि...कि इस वक्त मुझ पर क्या बीत रही है। तुम्हारा बड़ा अहसान होगा जो तुम मुझे मेरे बारे में कुछ बता सको तो।”
“नहीं साहब। मैं आपको नहीं पहचानता। लेकिन आपकी सूरत कुछ जानी-पहचानी सी महसूस हुई थी। शायद आप कभी मेरे यहां चाय पीने आये हो।”
“भगवान के लिये...।” वह गिड़गिड़ाया—“याद करने की कोशिश करो। शायद तुम मुझे पहचानते हो...जरा जोर डाल कर सोचो।”
“बाबू जी...मेरी याददाशत बहुत पक्की है। कोई भी जानकार हो...यदि वह दस साल बाद भी मेरे सामने आये तो मैं उसे पहचान लूंगा। यह मेरे दिमाग की ही बात है कि आप कभी मेरे यहां चाय पीने आये होंगे ओर मुझे ऐसा लग रहा है।”
“ओह...!”
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