महाधूर्त
“बांऽऽऽऽ”
ट्रेन के प्रेशर हॉर्न की तेज आवाज सुन कर अर्जुन त्यागी की आँखें खुल गईं।
उसने आंखें मलते हुए खिड़की के बाहर देखा—एक अन्य ट्रेन पास की पटरियों पर धीरे-धीरे चल रही थी।
उसी के प्रेशर हॉर्न की आवाज ने उसे नींद से जगा दिया था।
कुछ पलों तक वह यूं ही बैठा रहा—जैसे अपने दिमाग में छाई सुस्ती को दूर कर रहा हो—फिर उसने गौरी की तरफ देखा।
वह सीट पर पसरी इतनी गहरी नींद सो रही थी कि उसका मुंह खुल गया था।
उसने गौरी को हिलाया। मगर गौरी की नींद नहीं खुली।
दूसरी बार उसने गौरी की छातियों को इतनी जोरों से दबाया कि अगर वह जाग रही होती तो अवश्य ही वह पीड़ा से चीख पड़ती।
हल्की-सी हड़बड़ाहट के साथ गौरी ने आंखें खोल कर उसे देखा—फिर पुनः आंखें बन्द कर लीं।
“उठ जा—।” अर्जुन त्यागी बोला।
गौरी ने जैसे जबरदस्ती आंखें खोलीं और नींद भरे स्वर में बोली—
“सोने दे...।”
“उठ जा।” इस बार अर्जुन त्यागी सख्ती से बोला और उसके सिर के नीचे हाथ दे उसे जबरदस्ती उठा दिया।
गौरी ने सिर को दो-तीन झटके दिये, जैसे नींद भगाने की कोशिश कर रही हो। मगर उसका दिमाग अभी भी चक्कर खा रहा था।
उसे बिठाने के बाद अर्जुन त्यागी ने इधर-उधर देखा तो इंसान नाम की उसे अपने आस-पास कोई चीज नजर नहीं आई।
हड़बड़ाते हुए वह उठा और पूरा डिब्बा देखा।
पूरा डिब्बा खाली था।
वह हैरान।
ट्रेन के सारे मुसाफिर उतर गये थे और उन दोनों को पता तक नहीं चला था।
वापिस गौरी के पास आकर उसने देखा—अब कुछ सम्भली हुई थी वह—मगर उसके चेहरे पर अभी भी आलस नजर आ रहा था।
“खड़ी हो जा।” वह बोला—“और जाकर मुंह धो। तब तक मैं बैग निकालता हूं।”
गौरी हिम्मत कर के उठी और उधर बढ़ी जिधर वाशबेसिन लगा था।
उसके जाते ही अर्जुन त्यागी झुका और जैसे ही उसने सीट के नीचे देखा—उसका कलेजा मुंह को आ गया।
बैग गायब था।
हड़बड़ा कर वह खड़ा हुआ और बैग की तलाश में इधर-उधर देखने लगा।
तभी गौरी भी आ गई।
अब वह सम्भली हुई थी।
“क्या हुआ?” वह अर्जुन त्यागी के चेहरे को देखते हुए बोली।
“बैग...बैग नहीं मिल रहा।” अर्जुन त्यागी की आवाज भर्रा गई।
सुन कर गौरी भी पहले उछली, फिर उसका कलेजा भी बैठ गया।
“अ...अब क्या होगा? पूरे ग्यारह लाख थे बैग में—हम तो लुट गये।” उसकी आवाज भी गम्भीर हो गई।
अर्जुन त्यागी बोला—“पता नहीं कहां हैं हम—पता नहीं कौन सा स्टेशन है—इधर-उधर देख कर यही लगता है कि ट्रेन आउटर में खड़ी है।”
दोनों अपनी किस्मत पर रोते हुए नीचे उतरे तो उन्हें पता चला कि सिर्फ दो ही डिब्बे आउटर पर खड़े थे।
आगे दो ट्रेक थे।
दोनों ट्रेन को पार करके खुली जगह पर आये तो उनकी नजरें बाईं तरफ कुछ दूर स्टेशन की तरफ गईं—तो 'मेरठ जंक्शन' का बोर्ड नजर आया उन्हें।
“यह तो हम मेरठ पहुंच गए।” गौरी हैरानी से अर्जुन त्यागी को देखते हुए बोली।
“कमाल है।” अर्जुन त्यागी भी हैरान होते हुए बोला—“जालंधर से अम्बाला तक का सफर तो बढ़िया कटा, कोई गड़बड़ भी नहीं हुई, फिर अम्बाला के बाद ऐसा क्या हो गया कि हम ऐसा सोए कि अब जाकर हमारी नींद खुली—वो भी जबरदस्ती खुली। ट्रेन के दो डिब्बे अलग हो गये, सारी सवारियां उठ कर चली गईं और हमें पता भी नहीं चला। पता नहीं यह डिब्बे भी कब से यहां खड़े थे।”
“मुझे तो लगता है किसी ने हमें लूटा है।” गौरी ने संदेह व्यक्त किया।
“यानि चोर को मोर...।”
“लगता तो ऐसा ही है।” गौरी ने गहरी सांस छोड़ी—“अब उसने लूटा कैसे, यह समझ नहीं आ रहा। किसी ने सुंघाया भी नहीं जो हम बेहोश हो गये। ऐसा कुछ महसूस भी नहीं हुआ हमें कि हम पर बेहोशी छा रही है।”
“मगर मेरी समझ में आ रहा है।” अर्जुन त्यागी गम्भीरता से बोला।
“क्या?”
“यही कि हमें नींद कैसे आई। वो भी इतनी गहरी कि इतने लम्बा सफर करने के बाद भी नहीं खुली।”
“कैसे? कैसे आई नींद?” गौरी उत्सुकता से उसे देखते हुए बोली।
“अम्बाला में हमने स्टेशन पर समोसे खाये थे और चाय पी थी।”
“हां।”
“उसके बाद जब ट्रेन चली तो उसके थोड़ी देर बाद कोल्डड्रिंक वाला आया था।”
“हां, और तूने दो कोल्डड्रिंक ली थीं उससे।” गौरी बोली।
“और उसने कोल्डड्रिंक के डाले के दूसरी साईड से कोल्डड्रिंक निकाल कर हमें दी थीं। और उसके दो मिनट बाद ही एक आदमी हमारे पास आकर खड़ा हुआ था...और रह-रह कर हमें देख रहा था।”
“और मैं समझ रही थी कि वह मेरी छातियों को देख रहा है।” गौरी ने मुंह बनाया।
“उस कोल्डड्रिंक वाले ने ही उसे हमारे पास भेजा होगा। और बार-बार हमें इसलिये देख रहा था कि हमें नींद आ रही है कि नहीं। मौके की तलाश में था वह—और जैसे ही हम सोये, उसने मौका देख कर हमारा बैग साफ कर दिया।”
गौरी का चेहरा दमक उठा, आंखों में कहर उभर आया।
“हमारा माल लूट कर ले गया कुत्ता—और हम उसका कुछ भी नहीं कर पाये।” वह गुर्राई।
“शुक्र मना कि हम जिन्दा बच गये। वर्ना ऐसे मामले में मौत भी हो सकती थी।”
“वापिस अम्बाला चल।” गुर्राई गौरी—“अपना रोकड़ा वसूल करना है हमें।”
“यह क्या कह रही है तू?”
“तो और क्या करें—उन रुपयों को भूल जायें?”
“बेवकूफों वाली बात मत कर। तू क्या समझती है वो वहां बैठा तेरा इंतजार कर रहा होगा। अरे, ग्यारह लाख मिला है। ऐसे में वो महीना भर उधर का रुख भी नहीं करेंगे।”
“तो तू यह चाहता है कि हम अपनी मेहनत की कमाई को भूल जाएं? पता भी है कितनी मेहनत की है हमने...कितना खून बहाया? तब जाकर यह रुपया हाथ लगा। वैसे तो दो सौ करोड़ का माल भी लगा था हाथ—मगर हमारी बदकिस्मती कि वह माल पुलिस के हत्थे लग गया। और तू कहता है कि हम ग्यारह लाख को भी भूल जायें।”
“समझने की कोशिश कर बेवकूफ!” गुस्से में भुनभुनाया अर्जुन त्यागी—“वहां वापिस जाना बेवकूफी होगी। हम यहीं कोई मुर्गा तलाशते हैं और उससे अपनी गाड़ी चलाते हैं।”
“यानि पहले गुजारे का बंदोबस्त करें, फिर आगे की सोचें।”
“हां।”
“नहीं!” गुस्से में बोली वह।
“जिद मत कर—हम दोनों के पास सिर्फ तीन-चार हजार ही हैं—जो हमारी जेबों में हैं। यह पैसा खत्म होने तक हम कोई न कोई शिकार कर ही लेंगे।”
“नहीं।” गौरी सख्ती से बोली—“मैं इतनी मेहनत से कमाया पैसा इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकती।”
“तो भाड़ में जा”—अर्जुन त्यागी को भी गुस्सा आ गया—“जा मर अम्बाला में। मैं नहीं जा रहा—यहीं रहूंगा मैं। आज से तेरा और मेरा रास्ता अलग।”
कहने के साथ ही अर्जुन त्यागी ने उसकी तरफ पीठ की और कदम बढ़ा दिये।
गौरी कुछ देर तक उसे जाते देखती रही। फिर वह भी मुंह फुला के स्टेशन की तरफ बढ़ने लगी।
स्टेशन पहुंच कर उसने अम्बाला जाने वाली ट्रेन का पता किया तो उसे पता लगा कि एक घण्टे बाद आयेगी।
उसने टिकट खिड़की से अम्बाला के लिये एक टिकट ली और स्टेशन में प्रवेश कर प्लेटफार्म पर लगी बैंचों में से एक पर बैठ गई।
अर्जुन त्यागी का ख्याल भी उसके जेहन में नहीं आ रहा था। उसके जेहन में तो बार-बार कोल्डड्रिंक पिलाने वाले की तस्वीर कौंध रही थी।
और जैसे ही उसके जेहन में उसकी और उसके साथी की छवि घूमती, गुस्से से उसके नथुने फूलने-सुकड़ने लगते।
“हैलो।” तभी उसके बाईं तरफ से आवाज आई।
गौरी ने अपने बाईं तरफ देखा तो करीब तीस साल के सेहतमंद व्यक्ति को उसके करीब बैग रखते देखा—“जरा दो मिनट बैग का ध्यान रखना, मैं अभी आया।”
कहकर वह आदमी पलटा—उत्तर सुने बिना तेजी से स्टेशन के गेट की तरफ बढ़ गया।
गौर कुछ पल तो उसे देखती रही—फिर उसने बैग को देखा, जो उसके करीब रखा था।
एयर बैग था वह।
कुछ सोच कर गौरी ने बैग की चेन खोल कर देखा।
कपड़े वगैरह रखे थे। कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था, न ही उसमें उसे कोई रोकड़ा दिखा।
उसने चेन बन्द की और सीधी होकर बैठ गई।
करीब पांच मिनट बाद वह आदमी वापिस आया।
“थैंक्यू।” बैग उठाकर वह बैठते हुए बोला—“टिकट के लिये लाईन लगी थी। ऐसे में बैग उठाना मुश्किल था। सो आपको कह दिया...।”
गौरी कुछ नहीं बोली, बस परे देखने लगी।
“अम्बाला जा रही हैं आप?” वह आदमी जैसे उससे बात करना चाहता था।
“हां...।” गौरी बोली।
“मेरा नाम प्रेम किशोर है। यहीं मेरठ में शादी हुई है मेरी। अपनी पत्नी को उसके मायके छोड़ने आया था। अब घर जा रहा हूं।”
गौरी कुछ नहीं बोली। और फिर से परे देखने लगी।
“आपने अपना नाम नहीं बताया?”
पहले तो गौरी का दिल किया कि उसे फटकार दे। फिर तुरंत ही उसके जेहन में आया कि क्यों न वह उसके घर चले।
उसकी जेब में इतना पैसा नहीं था कि वह एक रात से ज्यादा किसी होटल में गुजार सके। किसी गैस्ट हाउस में वह दो दिन रह लेती—और पता नहीं वह आदमी उसे कब दिखता।
वह प्रेम किशोर के साथ रहेगी तो उसका होटल का खर्चा बच जायेगा और वह उससे कुछ पैसा भी ऐंठ सकती है।
“हेमा।” वह हल्की-सी मुस्कान के साथ बोली।
“बहुत अच्छा नाम है।” मर्दाना फितरत के अनुरूप ही बोला प्रेम किशोर।
“थैंक्यू।”
“अम्बाला में कहां रहती हैं आप?”
“कहीं नहीं।”
“मगर आप तो अम्बाला जा रही हैं...।”
“अम्बाला जाने का यह तो मतलब नहीं कि मैं रहती भी वहीं हूं? मैं वहां काम से जा रही हूं।”
“ओह! तो आप वहां काम करती हैं...।”
“जी नहीं, काम ढूंढने जा रही हूं। वहां पांच दिन तक मेरे अलग-अलग जगहों पर इंटरव्यू हैं। देखती हूं कहा सलेक्ट होती हूं!” उसने गहरी सांस छोड़ी।
“ओह! तो नौकरी के लिये जा रही हैं आप।”
“हां।”
“रुकेंगी कहां आप?”
“किसी गेस्ट हाउस में गुजारनी होंगी रातें...।” गौरी अब खुद ही लाईन पर आ रही थी।
उसके जवाब ने प्रेम किशोर को जैसे मनचाही कहने का मौका दे दिया।
“अ-अगर आप बुरा न मानें तो आप मेरे यहां रह सकती हैं। गलत मत सोचियेगा, मेरी गलत मंशा नहीं है।
मैं तो यह सोच कर कह रहा हूं कि आपका खर्चा बच जायेगा—और फिर गेस्ट हाउस में रात गुजारना खतरे से खाली नहीं होता।
इसलिये...।”
वह बोलते-बोलते चुप हो गया।
गौरी ने मुंह परे फेर लिया था।
वह चाहती तो तभी हां कर सकती थी, मगर ऐसा करने से प्रेम किशोर उसे गलत समझता, जो कि वह हरगिज नहीं चाहती थी।
अब हां करने का उसे बढ़िया-सा मौका ढूंढना था। और वह मौका उसे ट्रेन में हासिल होना था।
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