कटार
अनिल सलूजा
“अबे...अबे भीतर कहां जा रहा है...चल बाहर...।”
“नहीं...मुझे साहब से मिलने दो...। मेरा उनसे मिलना बहुत जरूरी है।”
आवाजें सुनकर अपने ऑफिस में बैठा सिकन्दर ठाकरे चौंका।
तुरन्त वह अपनी कुर्सी से खड़ा हुआ और टेबल के पहलू से निकलकर ऑफिस से निकला।
संतरी हरिसिंह नौ–दस साल के लड़के का कॉलर पकड़कर उसे बाहर की तरफ खींचकर ले जा रहा था, जबकि लड़का भीतर आने के लिये जोर लगा रहा था।
लड़के की हालत बेहद खस्ता थी। उसके बाल बिखरे हुऐ थे, जिनमें धूल के कण नजर आ रहे थे। उसने काले रंग की जीन्स पहन रखी थी, जो कि मैली होकर बदरंग हो गई थी...ऊपर सफेद शर्ट पहन रखी थी उसने, जिसका हाल जीन्स से भी बुरा था। चेहरा बुरी तरह से मुरझाया हुआ था, जैसे कई दिनों का भूखा हो।
गौरे रंग का वह खूबसूरत लड़का ऐसे लगता था जैसे वो कोई खानदानी लड़का हो...लेकिन वक्त की मार ने उसे भिखारी बना दिया हो।
“हरिसिंह...।” तभी सिकन्दर ठाकरे ने संतरी को आवाज लगाई।
लड़के को घसीटकर बाहर ले जाता संतरी वहीं रुक गया।
हरिसिंह ने गर्दन मोड़कर सिकन्दर ठाकरे की तरफ देखा।
लड़के ने भी उसकी तरफ देखा और चीखा—“मुझे बड़े साहब से मिलना है साहब...!”
“छोड़ दो इसे...।” गम्भीर स्वर में बोला सिकन्दर ठाकरे।
हरिसिंह ने फौरन हुक्म का पालन किया।
आजाद होते ही लड़का लड़खड़ाते कदमों से सिकन्दर ठाकरे की तरफ भागा।
“साहब...!” करीब आते ही लड़का उसकी टांगों से लिपट गया और ज़ार–ज़ार रोने लगा—“मुझे बड़े साहब से मिलना है।”
सिकन्दर ठाकरे ने उसे अपनी टांगों से अलग किया और पंजों के बल बैठकर उसके आंसुओं को पोंछते हुए बोला—“मैं ही बड़ा साहब हूं...बोलो बेटे...क्या बात है...? क्यों मिलना चाहते हो तुम मुझसे...? नहीं...पहले बताओ, खाना खाया है कि नहीं...?”
लड़के ने इन्कार में सिर हिलाया—“तीन दिन से सिर्फ पानी ही पी रहा हूं बड़े साहब...!”
एक तेज झटका लगा सिकन्दर ठाकरे को। एक मासूम तीन दिन से भूखा था...झटका तो लगना ही था उसे।
“त...तुम तीन दिन से भूखे हो...?”
लड़के ने हां में सिर हिलाया और बोला—“लेकिन साहब...मैं खाना नहीं खाऊंगा...।”
यह सिकन्दर ठाकरे के लिये दूसरा झटका था।
तीन दिन का भूखा लड़का खाने से इन्कार कर रहा था। बेहद हैरानी वाली बात थी।
“क्यों बेटे...क्यों नहीं खाना खाओगे तुम...?”
“आपका नाम क्या है बड़े साहब...?”
“क्यों...?” चौंका सिकन्दर ठाकरे।
“आपका नाम क्या है बड़े साहब...?” उसकी बात को अनसुना करते हुए बोला लड़का।
सिकन्दर ठाकरे ने उसके धूल से सने सिर पर प्यार से हाथ फेरा—“मेरा नाम सिकन्दर ठाकरे है बेटे!”
सिकन्दर ठाकरे का नाम सुनकर लड़के की आंखों में आशा भरी चमक उभरी...फिर उसकी आंखें पुन: बहने लगीं। हाथ अपने आप जुड़ गए।
“आप सिकन्दर ठाकरे ही हैं न साहब...?”
“हां बेटे...लेकिन बात क्या है?”
सिकन्दर ठाकरे उलझे स्वर में बोला।
“मेरी मां ने कहा था कि आप मुझे रीमा राठौर आंटी से मिला देंगे। प्लीज बड़े साहब...मुझे रीमा राठौर आंटी से मिला दीजिये...।”
रीमा राठौर का नाम उसके होंठों से निकलते सुन सिकन्दर ठाकरे चौंका।
“तुम जानते हो रीमा राठौर को...?”
“न...नहीं...।” लड़के ने इन्कार में सिर हिलाया।
“क्यों मिलना चहते हो उससे...।”
लड़के ने होंठ भींच लिये। भूखा होने के बावजूद उसकी आंखों में दृढ़ता थी।
सिकंदर ठाकरे समझ गया कि लड़का सिवाय रीमा राठौर के किसी को कुछ नहीं बतायेगा।
उसने पुन: उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बोला—
“मैं तुम्हें रीमा राठौर से मिलवा सकता हूं...लेकिन मेरी एक शर्त होगी?”
लड़का उसकी तरफ कातर निगाहों से देखने लगा।
“तुम्हें खाना खाना होगा। बोलो...मंजूर है शर्त?”
लड़के की आंखों से बह रहे आंसुओं की धारा ने तेजी पकड़ ली।
सिकन्दर ठाकरे ने उसे बगलों से पकड़कर उठाया और अपने ऑफिस में ले गया।
लड़के को कुर्सी पर बिठाकर उसने एक सिपाही को बुलाकर खाना लाने के लिये कहा...फिर लड़के की तरफ देखा—
“क्या नाम है तुम्हारा...?”
“महेश...।” लड़का थूक सटकते हुए बोला।
“कहां से आये हो...?”
महेश ने पुन: होंठ भींच लिये।
सिकन्दर ठाकरे गहरी सांस छोड़कर रह गया। कुछ भी बताने को तैयार नहीं था वह।
वह उसके पास से हटा और अपनी कुर्सी पर बैठकर फोन को अपनी तरफ घसीटा और रीमा राठौर का नम्बर डायल करने लगा।
¶¶
शानदार डीलक्स साइज के बेड के करीब सुर्ख कालीन पर बिछी सफेद चादर पर रीमा राठौर पेट के बल लेटी हुई थी।
उसके बदन पर कपड़े का एक रेशा तक नहीं था।
उसके करीब बैठी पार्वती उसकी पीठ पर सुगन्धित तेल की मालिश कर रही थी...जिसके कारण उसका खूबसूरत बदन लश्कारे मार रहा था।
सिरहाने पर सिर रखे रीमा राठौर मालिश का आनन्द ले रही थी, जबकि पार्वती को उसके संगमरमरी बदन पर हाथ फेरने का स्वर्गिक सुख प्राप्त हो रहा था।
उस वक्त पार्वती रीमा राठौर के नितम्बों पर मालिश कर रही थी कि तभी फोन की घण्टी घनघना उठी—
“ट्रिन...ट्रिन...।”
पार्वती ने उसके नितम्बों पर से हाथ उठाये और खड़ी होकर बेड की पुश्त पर रखे फोन का रिसीवर उठाकर कान से लगाया।
“हैलो...।”
“हैलो पार्वती...मैं सिकन्दर ठाकरे बोल रहा हूं...रीमा बैठी है?”
“जी हां...।”
“बात कराओ उससे मेरी...।”
पार्वती ने इन्स्ट्रूमेंट उठाया और रीमा राठौर की तरफ मुड़ी।
तुरन्त रीमा राठौर ने गर्दन ऊंची की और सिरहाने पर कोहनियां टिकाते हुए पार्वती की तरफ देखा।
इस पोज में आते ही उसकी शानदार छातियां ऐसे नजर आने लगीं, जैसे पूर्णिमा के दो चांद आपस में मिले हुए हों।
“ठाकरे साहब का फोन है।”
पार्वती रिसीवर उसकी तरफ बढ़ाते हुए बोली।
रीमा राठौर ने रिसीवर लेकर कान से लगाया और बोली—
“हां बोलो ठाकरे...?”
“क्या कर रही हो...?” सिकन्दर ठाकरे की आवाज आई।
“मालिश करवा रही हूं...।” रीमा राठौर मुस्कुराई—“देख लो...तुमसे किस्मत वाली तो पार्वती है, जो मुझे हर रोज ऊपर से नीचे तक न केवल देखती है...बल्कि मेरे हर अंग को सहलाती भी है, लेकिन तुम्हारी किस्मत में यह सब कहां...क्योंकि तुम अपनी जिद पर अड़े हो और मैं अपनी जिद पर।”
“मैं मर जाऊंगा...लेकिन मूंछें नहीं मुंडवाऊंगा।”
“फिर तो ख्यालों में ही मेरे खूबसूरत बदन के दीदार करते रहना...।” हंसी रीमा राठौर।
“कोई लड़का तुमसे मिलना चाहता है।” दूसरी तरफ से आती आवाज में गम्भीरता आ गई।
“लड़का...कैसा है...? कितना लम्बा है...सेहत कैसी है...?”
“आठ–नौ साल का बच्चा है।” दूसरी तरफ से आवाज आई।
सुनकर रीमा राठौर भी एकदम से गम्भीर हो गई और चादर पर बैठ गई।
“क्या कहता है वह...?”
“सिवाय नाम के कुछ नहीं बता रहा...और तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि वह तीन दिन से सिर्फ पानी पीकर ही गुजारा कर रहा है। मैंने खाना खाने के लिये कहा तो खाने से इन्कार कर दिया। बस एक ही रट लगाये हुए है कि तुमसे मिलना है।”
“ओह!”
“बड़ी मुश्किल से मैं उसे खाने के लिये मना पाया हूं...। मुझे लगता है कि मामला कुछ ज्यादा ही सीरियस है।”
“नाम क्या बताया लड़के ने?”
“महेश...।”
रीमा राठौर ने गहरी सांस छोड़ी और बोली—“मैं आ रही हूं...।”
“मैं इन्तजार कर रहा हूं तुम्हारा...।”
दूसरी तरफ से सिकन्दर ठाकरे की आवाज आई और सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
रीमा राठौर ने रिसीवर पार्वती की तरफ बढ़ाया और बोली—“मेरा बदन पोंछ दो।”
“आप नहायेंगी नहीं मैडम...?” पार्वती फोन को वापिस सोफे की पुश्त पर रखते हुए बोली।
“आकर नहा लूंगी।”
पार्वती ने बेड पर रखा सफेद रंग का मुलायम तौलिया उठाया और उसका बदन पोंछने लगी।
तत्पश्चात् उसने वार्डरोब में से रीमा राठौर के लिये जीन्स और ढीली–ढाली स्कीवी निकाली।
कपड़े पहनकर रीमा राठौर ने ऊंची हील के जूते पहने और साइड स्टूल पर रखा गोल्ड फ्लैक का पैकेट और लाइटर उठाकर एक सिगरेट निकालकर सुलगाई और कश लगाते हुए बेडरूम से बाहर निकल गई।
कुछ ही देर में वह अपनी नई जेन में बैठी थाने की तरफ उड़ी जा रही थी।
¶¶
रीमा राठौर ने सिकन्दर ठाकरे के ऑफिस में प्रवेश किया और महेश को ऊपर से नीचे तक गौर से देखते हुए उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।
खाना खा चुका था महेश...लेकिन उसका चेहरा अभी भी मुरझाया हुआ था। आंखों में तड़प के भाव थे।
इस उम्र में बच्चे को किसी तरह की चिंता नहीं होती। उसे तो बस खेलने की होती है। दुनिया के दु:ख–दर्द से दूर होता है बच्चा...लेकिन महेश की आंखों में दर्द के भाव उमड़ रहे थे, ऐसे जैसे कोई भयावह मंजर उसकी आंखों के सामने से गुजरा हो।
महेश ने आशा भरी आंखों से रीमा राठौर की तरफ देखा।
“आप रीमा राठौर आंटी हैं न...?” उसने पूछा।
“हां बेटे...मैं रीमा राठौर ही हूं...बोलो बेटे...!” रीमा राठौर स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली।
“मेरा नाम महेश है...और मेरी मां का नाम सुनीता है...सुनीता दीक्षित...।”
“कहां रहते तो तुम...?” रीमा राठौर ने पूछा।
महेश की आंखों में आंसू उमड़ पड़े...चेहरे पर हल्की–सी कठोरता उभर आई।
“अ...आप रीमा राठौर नहीं हैं...।” वह रुआंसे स्वर में बोला।
बुरी तरह से चौंकी रीमा राठौर।
सिकन्दर ठाकरे भी चौंककर महेश की तरफ देखने लगा।
“य...यह क्या कह रहे हो तुम...? यह रीमा राठौर ही हैं।” वह रीमा राठौर की तरफ हाथ करते हुए बोला।
“यह रीमा राठौर नहीं हैं...आप भी सिकन्दर ठाकरे नहीं हैं। मैं आपको कुछ नहीं बताऊंगा...कुछ भी नहीं बताऊंगा...।”
कहते हुए महेश कुर्सी से उतर गया।
अगर रीमा राठौर तुरन्त उसकी बांह नहीं पकड़ लेती तो वह अब तक वहां से भाग खड़ा होता।
“मैं रीमा राठौर ही हूं बेटे...।” रीमा राठौर बोली।
“मेरी मां का नाम सुनीता दीक्षित है।” महेश बोल पड़ा।
रीमा राठौर का भेजा चकराकर रह गया। लड़का सिर्फ अपनी मां का या अपना नाम बता रहा है। और कुछ भी नहीं बता रहा।
क्यों?
यह क्यों जब उसके भेजे में आया...वह बुरी तरह से उछल पड़ी।
“तुम लौहगढ़ से आये हो...?” वह बोली—“तुम्हारे पापा का नाम रमेश है...?”
महेश फफक पड़ा और रीमा राठौर की गोद में मुंह देकर जोर–जोर से रोने लगा।
“मम्मी को बचा लीजिये आंटी...।” रोने के साथ–साथ वह बोल रहा था—“मेरी मम्मी को बचा लीजिये।”
एक तेज झटका लगा रीमा राठौर को—“क्या हुआ सुनीता को...?”
“म...मैं आपको लेने आया हूं आंटी...।”
रीमा राठौर की आंखें फैल गई—“तुम...अकेले आये हो...?” उसे जैसे विश्वास नहीं हुआ।
“तीन दिन से भटकता हुआ आज सुबह मुम्बई पहुंचा था आंटी! वो...वो मेरी मम्मी को मार डालेंगे। प्लीज मेरी मम्मी को बचा लो।”
“लेकिन हुआ क्या...कुछ बताओ तो सही?”
“अ...आप मेरे साथ चलिये...मैं रास्ते में आपको सब कुछ बता दूंगा।”
रीमा राठौर ने गहरी सांस छोड़ते हुए सिकन्दर ठाकरे की तरफ देखा, जो कि अभी तक हक्का–बक्का–सा दोनों को देख रहा था।
कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था उसे।
“यह सुनीता कौन है...?” रीमा राठौर को अपनी तरफ देखते पा वह इस तरह बोला जैसे उसे डर हो कि रीमा राठौर एक पल बाद उसकी बात सुनने से इन्कार कर देगी।
रीमा राठौर ने गहरी सांस छोड़ी और बोली—
“मेरी बड़ी बहन...।”
बुरी तरह से उछल पड़ा सिकन्दर ठाकरे। आंखें हैरानी से फट पड़ीं।
“तुम्हारी बहन...?”
“मुंहबोली बहन...।”
“ओह!” सिकन्दर ठाकरे ढीला पड़ गया।
“करीब तीन साल पहले लौहगढ़ में मिली थी मुझसे। उन दिनों मैं संग्राम सिंह वाला केस सॉल्व करने लौहगढ़ गई हुई थी। उस रोज जब मैं संग्राम सिंह की कार का पीछा एक बाइक पर बैठकर कर रही थी कि तभी एकाएक संग्राम सिंह की तरफ से फायर हुआ और...।”
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