खूनी कोठी
टेलीफोन की घंटी बजने लगी।
डॉ. अचला निगम ने रिसीवर उठाया—“हैलो....।”
“अचला....मैं रमेश....।”
“कहां से बोल रहे हैं....?”
“धामधा से....। और कहां जाऊंगा मैं....?”
“हुक्म कीजिए....।”
“यहां आ सकती हो....?”
“कोई खास बात....?”
“हां....कुछ जरूरी बातें करनी हैं....।”
“ठीक है....। कल रविवार है....। क्लीनिक बंद रहेगा....। सुबह को आ जाऊंगी....।”
“मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा....।”
अचला ने रिसीवर रख दिया।
“किसका फोन था....?” अचला के पति शंकर लाल निगम ने उसकी ओर देखा।
“सक्सेना साहब का....। धामधा बुलाया है....।”
“तुम दो सयानों बच्चों की मां हो....।”शंकर लाल के चेहरे पर क्रोध के भाव आ गये—“वो क्या सोचते होंगे....कुछ एहसास है....?”
“सक्सेना साहब के मेरे ऊपर बहुत एहसान हैं शंकर....। फिर वो अपाहिज हैं....। मैं उसकी एक मात्र दोस्त हूं....। हर मामले में मेरी सलाह लेते हैं....। मैं कोई गलत काम नहीं करती....। बच्चों को मुझ पर पूरा भरोसा है....।”
“लेकिन मुझे नहीं है....।”शंकर लाल चीख पड़े।
“तो तलाक ले लो....।”अचला का स्वर शांत था।
“तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं ऐसा नहीं कर सकता....। तुमसे प्यार करता हूं मैं....। जब तलाक लेने की उम्र थी....तब तो लिया नहीं....हां....किसी की जान जरूर ले सकता हूं....।”
“तो जान ही ले लो....। लेकिन मेहरबानी करके ये रोज-रोज की चख-चख बंद कर दो....।”
“तुम पति को छोड़ सकती हो....जान भी दे सकती हो। लेकिन उस हरामजादे को....।”
“माइंड योर लैंगुएज शंकर....। जुबान पर लगाम दो....जो कहना है....मुझसे कहो....सक्सेना साहब के बारे में गलत अल्फाजों का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दे सकती मैं....। वह आदमी नहीं....फरिश्ता है....। उसने मेरी जो मदद की थी....वह कोई सगा भी नहीं कर सकता था....। मैं एहसान फरामोश नहीं.....।”
“मैंने तुमसे कहा था कि मैं अपनी कंस्ट्रक्शन कम्पनी खोलना चाहता हूं....। दस लाख रुपयों की जरूरत पड़ेगी....। पांच लाख मांगे थे तुमसे....।”
“अगले महीने तक मिल जायेंगे....।”
“तुम्हारा क्लीनिक शहर में सबसे टॉप पर चल रहा है....। विजिटिंग फीस भी सब डॉक्टरों से ज्यादा है....। तुम्हरा बैंक-बैलेंस तो लाखों में होना चाहिए....।”
“जो कमाती हूं....वो सक्सेना साहब को दे आती हूं....। साफ-साफ क्यों नहीं कहते....?”
“ऐसा नहीं कहा मैंने....। क्योंकि सक्सेना धामधा का राजा माना जाता है....। उसे भला किस बात की कमी हो सकती है....?खैर जाने दो....। तुम मेरे लिए पांच लाख का इंतजाम कर दो....।”
“हो जायेगा....। न हो सका तो राजा साहब से उधार ले लूंगी....।”
“सक्सेना इतने रुपये उधार दे देगा....?”
“मुझे दे देंगे....। उन्हें मुझ पर पूरा भरोसा है....।”
“कल जा रही हो न....। बात कर लेना....।”
“अब नहीं रोकोगे....। मतलब पड़ गया न....।”
शंकर लाल ने कोई जवाब नहीं दिया। बस....घूर कर रह गया।
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दुर्ग में अपना बंगला था दोनों का। धामधा एक कस्बा था....जो जिला दुर्ग में ही आता था।
डॉक्टर अचला निगम का क्लीनिक खूब चलता था। शहर की सबसे मंहगी डॉक्टर मानी जाती थी। लोगों का कहना था कि उसकी दवा में जादू होता है। एक ही खुराक में मरीज को आराम आ जाता है।
उसका पति शंकर लाल निगम सिविल इंजीनियर था। एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी में नौकरी करता था। तनख्वाह भी अच्छी पाता था।
पिछले कुछ दिनों में उस पर अपनी कम्पनी खोलने का भूत सवार हो गया था। करीब पैंतालीस की उम्र का तंदरुस्त व्यक्ति था वह।
डॉक्टर अचला एक बेहद खूबसूरत महिला थी। तकरीबन अड़तालीस वर्ष की आयु थी उसकी। लेकिन वह तीस से ज्यादा की नहीं लगती थी।
दो बच्चे थे उनके। लड़का बड़ा था। विक्रम था उसका नाम। लगभग पन्द्रह वर्ष की उम्र थी उसकी। रायपुर में पढ़ रहा था....और वहीं बोर्डिंग में रहता भी था।
लड़की का नाम था मेनका। बारह वर्ष की थी वह। बम्बई में अपनी मौसी के पास रहती थी। उसकी मौसी की अपनी कोई औलाद नहीं थी। इसलिए मेनका को करीब-करीब गोद ही ले लिया था। वहीं पढ़ती थी वह।
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