खेल गया खेल
“यह अंशुमन सिन्हा का पहला उपन्यास है।” शगुन ने अपने दाएं हाथ में मौजूद एक उपन्यास की प्रति बड़े से हॉल में कतारबद्ध सोफों पर बैठे करीब पचास लोगों को दिखाते हुए माइक पर कहा था—“नाम है, ‘बस—अब विदा’। विमोचन समारोह में अंशुमन ने मुझे प्रकाशक होने के नाते मुंबई बुलाया है। अंशुमन की इच्छा थी इसका विमोचन मेरे पापा यानी वेदप्रकाश शर्मा करें। इसलिए वे भी आए हैं।” कहने के साथ शगुन ने मेरी तरफ इशारा किया।
डायस के पीछे, कुर्सी पर बैठे मैंने हाथ जोड़कर हॉल में मौजूद स्त्री-पुरुषों का अभिवादन किया।
लोगों ने ताली बजाकर मेरा स्वागत।
शगुन ने कहना जारी रखा—“हमारे पास अनेक नए लेखक उपन्यास छपवाने आते रहते हैं—इतने ज्यादा कि हम उन्हें पढ़ने तक का टाइम नहीं निकाल पाते और जब अंशुमन स्क्रिप्ट लेकर आया तो मैं तो इसका नाम देखकर ही बिदक गया—‘बस—अब विदा’। भला ये भी कोई नाम हुआ! मैं इसका एक पेज भी पढ़ने को तैयार नहीं था मगर अंशुमन की जिद के सामने मजबूर होकर पढ़ा और जो स्टोरी मजबूर होकर पढ़नी शुरु की थी, उसने मेरी पूरी रात काली कर दी। शुरु किया तो बस पढ़ता ही चला गया। खासतौर पर अंत पढ़ने के बाद मैंने निश्चय किया कि इस उपन्यास को जरूर छापूंगा। फिर अंशुमन से कवर पेज पर चर्चा हुई। आप देख रहे हैं—कवर पेज पर एक नौजवान को अपनी कनपटी पर गोली मारते हुए दिखाया गया है। यह भी केवल और केवल अंशुमन की जिद के कारण है। अंशुमन ऐसा क्यों चाहता था, यह वही आपको बता सकता है। मैं केवल इतना कह सकता हूं कि ‘बस—अब विदा’ हरेक को पढ़ना चाहिए। इसमें आपको भरपूर थ्रिल, सस्पैंस और सेंटीमेंट्स के अलावा अंत में एक शिक्षा भी मिलेगी। इस उपन्यास में लिखे कथानक को पढ़ने के बाद मैं अपने पापा से क्षमा मांगता हुआ इससे ज्यादा और कुछ नहीं कह सकता कि ‘बस—अब विदा’ हिंदुस्तान के सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखक श्री वेदप्रकाश शर्मा के अब तक लिखे गए सभी उपन्यासों पर भारी है।”
हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
मेरे होठों पर मुस्कान उभर आई। शगुन माइक के सामने से हट चुका था। उसके बाद मैंने ‘बस—अब विदा’ की प्रति पर बंधे लाल रंग के रिबन को काटकर उसका विमोचन किया।
अंशुमन ने मुझसे ‘दो शब्द’ कहने के लिए कहा।
मैं माइक पर पहुंचा और बोला—“दुर्भाग्य की बात ये है कि मैं अभी तक अंशुमन के उपन्यास को नहीं पढ़ पाया हूं इसलिए उस पर दो शब्द तो क्या, एक शब्द भी नहीं बोल सकूंगा। मैंने यह बात अंशुमन को बता दी थी, इसके बाद भी इसने जिद की कि विमोचन मुझे ही करना होगा। इसने ऐसी जिद क्यों की, ये जाने। मगर मुझे शगुन पर पूरा भरोसा है। वो जो छापेगा, छपने लायक ही होगा। जितनी बड़ी बात उसने इस उपन्यास के कथानक के बारे में कही है, अगर वह सच है तो मैं अंशुमन को बधाई देता हूं और वादा करता हूं इस उपन्यास को पढ़ने और इसके बारे में अंशुमन को अपनी राय देने के बाद ही मुंबई से जाऊंगा।”
एक बार फिर हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
मैं यह कहने के बाद माइक से हट गया कि—“अब मैं चाहूंगा अपने उपन्यास के बारे में खुद अंशुमन कुछ बताए।”
अंशुमन माइक पर पहुंचा और बोला—“सबसे पहले मैं शगुन की तारीफ करूंगा। बहुत बड़ा दिल है उसका जो उसने अपने पापा की मौजूदगी में मेरे उपन्यास के बारे में इतनी बड़ी बात कही। दूसरी बात—इस उपन्यास का विमोचन वेदप्रकाश शर्मा करें, ऐसा इसलिए चाहता था क्योंकि इसका विमोचन सिर्फ और सिर्फ वे ही कर सकते थे क्योंकि वे ही मेरे प्रेरणास्रोत हैं। मैं उनका वैसा ही शिष्य हूं जैसा द्रोणाचार्य का एकलव्य था। अफसोस की बात ये है कि उन्हें इसके कथानक के बारे में मुझे अपनी राय देने का मौका नहीं मिलेगा और न ही मैं भविष्य में और कोई उपन्यास लिखने वाला हूं। ये मेरा पहला और अंतिम उपन्यास है क्योंकि असल में यह उपन्यास है ही नहीं—ये मेरी जिंदगी का निचोड़ है। या यूं भी कहा जा सकता है कि मैं जिंदा ही इस स्टोरी को लिखने के लिए था। इसके प्रकाशन के साथ ही मेरी जिंदगी का लक्ष्य पूरा हो गया है। अपने इस संबोधन का अंत मैं एक छोटे-से कारनामे के साथ करने वाला हूं। यहां बैठे कुछ लोग जानते हैं मैं वैसा क्यों करूंगा। जो नहीं जानते, वे इस उपन्यास को पढ़कर जान सकते हैं।” कहने के साथ उसने अपनी पैंट की जेब से एक रिवॉल्वर निकाल लिया था।
एकाएक सारे हॉल में सनसनी-सी दौड़ गई। चीखें निकल गईं लोगों के मुंह से। किसी की समझ में कुछ नहीं आया।
मैं भी उन्हीं में से था।
“न...नहीं अंशु।” अगली पंक्ति के सोफे से उछलकर खड़ी होती हुई एक औरत चिल्लाई—“य...ये क्या कर रहे हो तुम!”
“ये उपन्यास नहीं, सुसाइड नोट है मेरा। बस—अब विदा।” कहने के साथ उसने ट्रेगर दबा दिया।
धांय...! हॉल जोरदार आवाज से दहल उठा।
मुझ सहित हॉल के हर तरफ से लोग अंशुमन की तरफ लपके मगर किसी के भी पहुंचने से पहले उसकी लाश गिर चुकी थी।
¶¶
बेचैनी इतनी बढ़ गई थी कि होटल के कमरे में पहुंचते ही मैंने ‘बस—अब विदा’ पढ़ना शुरू कर दिया था।
मेरे साथ आप भी पढ़ें।
लिखा था—
मेरा नाम अंशुमन है—अंशुमन सिन्हा।
उम्र पच्चीस साल।
एक मल्टीनेशनल कंपनी में साफ्टवेयर इंजीनियर हूं।
पैकेज है—चौबीस लाख रुपए सालाना।
मल्टीनेशनल कंपनी वाले पैकेज तो काफी तगड़े देते हैं लेकिन मेरे जैसों का जूस भी मिक्सी में डालकर निकाल लेते हैं। सोलह सोलह घंटे काम कराना तो जैसे उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। जरूरत पड़ने पर चौबीस के चौबीस घंटे के लिए भी रगड़ देते हैं।
मेरी मां मेरी नौकरी लगने से पहले ही स्वर्ग सिधार गई थी मगर हार्ट फेल हो जाने के कारण जाते-जाते पिता को जरूर यह सुकून मिल गया था कि उनका बेटा सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गया है, किसी न किसी तरह अपनी जिंदगी गुजार ही लेगा।
उनके जाने के बाद मेरे जीवन में बस एक ही गम था। यह कि भरी-पूरी दुनिया में कोई ऐसा नहीं रहा था जिसे अपना कह सकता।
यूं तो हरेक की जिंदगी में अनेक परिचित चेहरे होते हैं, यार दोस्त और कुलीग्स आदि। उनके साथ हंसी-ठट्ठा करके आप अपना समय गुजार सकते हैं मगर ‘अपना’ उसे कहा जाता है जिसे आपकी फिक्र हो, जो आपसे प्यार करता हो, जिसे आपके पैर में कांटा चुभने पर आपसे भी ज्यादा दर्द होता हो।
ऐसे दौर में एक लड़की से मुलाकात हुई।
बड़ी अजीब मुलाकात थी वह।
ध्यान से पढे़ं, यह मेरी स्टोरी की बहुत ही अहम् किरदार है।
रात के दो बजे थे।
मैं अपनी नई-नवेली होंडा सिटी को खाली सड़क पर उड़ाता-सा ऑफिस से फ्लैट की तरफ जा रहा था कि सिटी हॉस्पिटल के बाहर एक लड़की नजर आई।
वह मुझे रुकने का इशारा कर रही थी।
पैर ब्रेक पैडल की तरफ बढ़ा।
फिर, जेहन में विचार उभरा कि रात के इस वक्त किसी लड़की के इशारे पर यूं रुकना समझदारी नहीं होगी।
पता नहीं क्या लफड़ा है...या पता नहीं किस लफड़े में जा फंसूं!
आजकल की लड़कियां लड़कों से ज्यादा खतरनाक हो गई हैं।
आए दिन अखबारों में छपता रहता है कि फलां लड़की ने फलां लड़के पर गैंगरेप का आरोप जड़ दिया और लड़का बेचारा रिश्तेदारों, परिचितों से लेकर समाज और कानून तक को यह समझाने के लिए दौड़ा फिर रहा है कि उसने कुछ नहीं किया।
किया हो या न किया हो, टीवी वाले बार-बार चेहरा दिखाकर हमेशा के लिए चेहरा बिगाड़ देते हैं सो अलग।
लड़की से कोई नहीं पूछता कि वह रात के दो बजे सड़क पर क्या कर रही थी। न पुलिस, न मीडिया, न आम लोग।
ये सब विचार मेरे पैर को फिर एक्सीलेटर पर ले गए और होंडा सिटी ‘सर्र...र्र’ की आवाज के साथ ‘मुसीबत’ के नजदीक से गुजर गई। लेकिन जवान लड़की हर उम्र के मर्द की कमजोरी होती है। इसी सिद्धांत के तहत न चाहने के बावजूद मेरी आंखों ने उसे गहरी नजरों से देखा था।
वह लंबी थी।
करीब पांच फुट छः इंच।
गोल, गोरे चेहरे और छरहरे बदन वाली। जिस्म पर स्काई कलर की जींस और सुर्ख रंग का टॉप।
पीछे छूटने के बाद भी मैं बैक-व्यू-मिरर में उसे देखता रहा था। पैर स्वतः एक्सीलेटर से उठकर ब्रेक पैडल पर जा पड़ा।
परिणामस्वरूप, सड़क पर घिसटने के कारण टायरों ने दूर तक छाई नीरवता को चीर दिया था।
दिमाग में विचार उभरा—‘हॉस्पिटल के सामने खड़ी है। शायद कोई मजबूरी हो।’ इसी विचार का प्रभाव था कि हाथ ने बैक गेयर डाला और एक्सीलेटर पर पहुंच चुके पैर ने अपना काम किया।
बैक-व्यू-मिरर में मैंने लड़की को होंडा सिटी की तरफ दौड़कर आते देखा तो जेहन में फिर विचार उभरा—‘ऐसी-वैसी लड़कियां ऐसे ही किसी स्थान पर खड़ी होकर लिफ्ट मांगती हैं ताकि मुझ जैसे लोग वही सोचकर लिफ्ट दे दें जो इस वक्त मैं सोच रहा था।’
कहने का मतलब यह कि पूरी तरफ डबल मांइड हुआ मैं गाड़ी को बैक करता रहा और वह गाड़ी की तरफ दौड़ती रही।
इन हालात में एक अवस्था तो ऐसी आनी ही थी कि लड़की गाड़ी के और गाड़ी लड़की के नजदीक पहुंच गई।
उसने ड्राइविंग विंडो के बंद कांच को इतनी बुरी तरह पीटा जैसे तोड़ डालना चाहती हो। साथ ही चीखी—“प्लीज, खोलिए।”
नई-नवेली होंडा सिटी के कांच को खतरे में देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। फिर भी, कांच को पूरी तरह नीचे नहीं किया मैंने।
थोड़ा-सा नीचे करके रूखे लहजे में पूछा—“कहिए, क्या बात है? आप मेरी गाड़ी को तोड़ने पर क्यों आमादा हैं?”
“स...सॉरी।” वह हड़बड़ाकर बोली—“पर प्लीज, मेरी मदद कीजिए। मैं मुसीबत में हूं।”
मैंने गौर से उसकी तरफ देखा—उसके बेइंतहा खूबसूरत चेहरे पर हड़बड़ाहट के भाव थे। हिरनी जैसी बड़ी-बड़ी आंखों में याचना। बाल बिखरे हुए। यानी वह सचमुच किसी मुसीबत में नजर आ रही थी। परंतु जेहन में कोई फुसफुसाया—‘वे’ लड़कियां ऐसे ही नाटक करती हैं अंशुमन बेटा...सावधान!’
अंदर ही अंदर पूरी तरह सावधान की मुद्रा में आ चुके मैंने उसे गौर से देखते हुए पूछा—“क्या मदद चाहिए?”
“मेरी मां बीमार है।” हांफते-से लहजे में उसने कहा—“डाक्टर ने कुछ दवाएं लिखी हैं जिनकी उसे फौरन जरूरत है।”
मेरे दिमाग में फटाक-से विचार उभरा—‘वैसी ही है प्यारे, वैसी ही लड़की है ये।’ तभी तो मुंह से निकला—“मेडिकल स्टोर तो हास्पिटल के अंदर ही है।”
“वो आज बंद है। डाक्टर ने बताया कि उसके परिवार में किसी की डैथ हो गई है।” बुरी तरह बेचैन वह कहती चली गई—“यहां से करीब एक किलोमीटर दूर अगले चौराहे पर एक मेडिकल स्टोर है जो सारी रात खुलता है। वहां ये दवाएं मिल जाएंगी।” उसने हाथ में मौजूद सिटी हास्पिटल का पर्चा कांच के पार से ही मुझे दिखाया।
मैं समझता था कि ‘वैसी’ लड़कियां ऐसे पर्चे भी रख सकती हैं मगर, इंसानी कमजोरियां अक्सर दिमागी घंटियां नहीं सुनने देतीं।
मैं दावे से कह सकता हूं कि मैंने उसकी खूबसूरती से प्रभावित होकर, अपनी शराफत का सिक्का जमाने हेतु कहा था—“बैठो।”
वह इस तरह दौड़ती हुई होंडा सिटी के सामने से गुजरी जैसे मैराथन दौड़ जीतने की ख्वाहिशमंद हो और...यह सच है कि मैं खुद यह नहीं जान सका उसने कब बाईं तरफ वाला दरवाजा खोला, कब ‘धम्म’ से सीट पर गिरी और कब झटके से दरवाजा वापस बंद करने के साथ बोली—“जल्दी।”
गाड़ी तो स्टार्ट थी ही।
मैंने गेयर चेंज किया और कार दौड़ा दी।
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