कत्ल एक अजूबा
राकेश पाठक
“रॉबरी का आइडिया बना कि नहीं?”
“नहीं...।” मैंने फुलस्केप पेपर को बालपेन की नोंक से तहस-नहस करके डस्टबिन के हवाले किया और श्रीमती जी से चाय का प्याला लेकर कहा—“दिमाग तो खपा रहा हूं लेकिन कोई ‘अनटच’ आइडिया निकलकर नहीं आ रहा है जबकि मैं चाहता हूं कि अपने आगामी नॉविल में कोई नयी व अछूती रॉबरी डालूं। विल्स का एक पैकेट तो निकालना, प्लीज।”
“कोई फायदा नहीं होगा सिगरेट पर सिगरेट फूंकने से...।” श्रीमती जी ने होंठ बिचकाते हुए कहा—“अभी आप टेंशन में हैं जी। मेरी सलाह मानें तो आप छुटमलपुर घूम आयें। मेरा भी मन अपने मम्मी-पापा से मिलने का है। अपना शुभम भी नाना-नानी को याद कर रहा है।”
मैंने पेन मेज पर छोड़कर ‘चट....चट’ करके हाथों की दसों उंगलियों को चटकाया, फिर इलायची की सुगन्ध से सराबोर चाय की दो चुस्कियां मारने पर बोला—“ये बात तो ठीक है मन्जू कि में टेंशन मैं हूं। पड़ोस में जवान मौत हो जाए तो मन का परेशान हो जाना स्वाभाविक है। शायद घर से बाहर निकलने से दिमाग को ताजगी मिलेगी। लेकिन मैं देहरादून या मसूरी जाने की सोच रहा हूं। हिल स्टेशन पर ठण्डक और ताजगी मिलेगी। तुम्हें और शुभम को रास्ते में छुटमलपुर ड्राप कर दूंगा।”
श्रीमती जी की बांछें खिल गईं।
उन्होंने मेरे प्रस्ताव पर फौरन ही स्वीकृति की मुहर लगा दी और उस रोज मुझे इलायची वाली तीन चाय बोनस के रूप में पीने को मिली। विल्स का एक पैकेट भी कोटे से अलग मिल गया।
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अगले रोज ही मैं अपनी छोटी-सी फैमिली अर्थात् अपनी बीवी और तीन वर्षीय बेटे शुभम के साथ खतौली से देहरादून डिपो की बस में सवार हुआ।
छुटमलपुर उतरकर उन दोनों को अपनी ससुराल में छोड़ा और नाश्ता लेकर फिर देहरादून जाने वाली बस में सवार हो गया।
बस फुल थी लेकिन एक सीट पर अकेले सज्जन आड़े-तिरछे होकर खर्राटे भर रहे थे।
“भाई साहब।” मैंने आहिस्ता से उनके भारी-भरकम कन्धे को झंझोड़ते हुए कहा—“ये दो सवारियों के लिए सीट है। मुझे भी जगह दीजिये।”
उसने आंखें खोलकर कंजी पुतलियों से मुझे अजीब-से भावों से घूरा। फिर परे खिसकते हुए जम्हाई लेने के लिये इतना मुंह फाड़ा कि मुझे गले की घण्टी भी नजर आ गई।
उफ्फ...इतना मोटा आदमी था वो कि मैं सीट पर आधा ही बैठ पाया। आधा सीट से बाहर निकला हुआ था—ऊपर से उसके जिस्म से इतनी तीखी बदबू निकल रही थी कि मेरा दिमाग सड़ने लगा।
उसका हुलिया भी इतना अजीबो-गरीब था कि वो कोई सनकी मालूम होता था—गन्दी-सी, सफेद से सुरमई हो चली पैन्ट-शर्ट के साथ उसने ‘ईस्टमेन’ कलर का कोट पहना हुआ था, यानि कत्थई रंग के कोट पर कई रंगों के पैबन्द लगे थे—सिर पर पनामा कैप थी और पैरों में टुक्कीदार काले चमड़े के भारी-भरकम जूते, जिनका वजन दो-ढाई किलो तो होगा ही।
उसने ईस्टमेन कलर कोट की जेब से पनामा की मुड़ी-तुड़ी डिब्बी और टैंक की माचिस निकाली।
“सिगरेट पियोगे मिस्टर?”
उसके मुख से निकले शब्दों के साथ शराब की दुर्गन्ध भी उभरी लेकिन मुझमें खड़े होकर सफर करने की हिम्मत नहीं थी, सो मन मार कर बैठा रहा और मुंह परे फेरते हुए बोला—“नौ थैंक्स। मैं सिर्फ विल्स ही पीता हूं।”
दुर्गन्ध से छुटकारा पाने के लिहाज से मैंने एक विल्स की सिगरेट सुलगा ली और मुंह फेरे हुए हल्के-हल्के कश मारने लगा।
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“ऐसा लगता है कि मैंने आपको कहीं ना कहीं देखा है मिस्टर....।” आवाज के साथ-साथ शराब का भभका मेरे दिमाग को सड़ा गया—“शायद हम पहले भी कहीं मिल चुके हैं।”
मैं उखड़े मूड से बोला—“हो सकता है कि मिले हों लेकिन मुझे याद नहीं।”
मैंने कनखियों से देखा तो वह कनपटी पर उगली से दस्तक-सी देते हुए कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था।
फिर वो चिहुंकते हुए बोला—“अरे हां, याद आ गया। आप राकेश पाठक हैं, उपन्यासकार। मैंने आपके काफी उपन्यास पढ़े हैं। मैं भी तो सोचूं कि आप जाने-पहचाने से क्यों लग रहे हैं! मैंने आपके फोटो उपन्यास की बैक साइड पर देखे हुए हैं। बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर....।” वो जबरन मेरे हाथ को अपने भारी-भरकम हाथ में लेते हुए बोला—“खादिम को प्रेम चोपड़ा बोलते हैं। अरे चौंकिये नहीं। मैं फिल्मों वाला प्रेम चोपड़ा नहीं हूं। हां, ये बात दूसरी है कि मैं....।” उसकी आवाज फुसफसाहट में बदल गई—“काम फिल्म वाले प्रेम चोपड़ा जैसे ही किया करता हूं। बड़ा ही खतरनाक आदमी हूं मैं।”
उस जोकर जैसे आदमी के मुंह से ऐसा सुनकर मेरे होंठ बरबस ही मुस्करा दिये।
“लगता है कि आप शराब और मेरे गन्दे कपड़ों की बदबू से परेशान हैं।” कोट की जेब से ‘वी-जोहन’ सैंट की स्प्रै शीशी निकालकर अपने कपड़ों पर सैंट छिड़कते हुए वह बोला—“अब आपको बदबू परेशान नहीं करेगी। क्या है कि मैं आजकल बिजी चल रहा हूं। हफ्ते भर से नहाने की भी फुर्सत नहीं मिली। विकासनगर जाकर ही स्नान-ध्यान होगा। ऐसा लगता है कि आप मेरी कम्पनी को अफोर्ड नहीं कर पा रहे हैं।” वो मेरे चेहरे पर कंजी आंखें टिकाते हुए बोला—“सैंट ने मेरी बदबू दूर कर दी है लेकिन आपके चेहरे पर अभी भी रूखापन है। शायद आप मेरे हुलिये की वजह से मुझे सनकी या पागल समझ रहे हैं। लेकिन माफ करना पाठक जी...।” उसकी आवाज बर्फ-सी ठण्डी हो चली थी—“ऐसा नहीं है। माना कि आप नॉवलिस्ट हैं। दिमाग भी रखते हैं। लेकिन प्रेम चोपड़ा भी कम नहीं है। एक हादसे ने इस खाकसार को जोकर-सा जरूर बना दिया है लेकिन पुराना चावल कोई खूबी रखता है। धूल चढ़ जाने से सोना मिट्टी नहीं बन जाता है।” उस झक्की से झक मारने की बजाय मैंने विल्स की सिगरेट सुलगा ली। और बस की छत को निहारते हुए कश पर कश लगाने लगा।
लेकिन वो शख्स भी मेरा पीछा छोड़ने के मूड में नहीं लगता था। पनामा की नान-फिल्टर सिगरेट सुलगाते हुए बोला—“आप रॉबरी-थीम पर कोई बढ़िया-सी स्टोरी क्यों नहीं लिखते हैं पाठक जी।”
मैं ना चाहते हुए भी उस सवालियां निगाहों से देखने पर मजबूर हो गया।
कम्बख्त ने मेरी कमजोर नस पर उंगली जो रख दी थी।
मैं हिल स्टेशन पर रॉबरी का आइडिया सोचने की गरज से ही जो जा रहा था।
एकाएक ही मुझे प्रेम चोपड़ा काम का आदमी नजर आने लगा—हो सकता था कि उससे डिस्कशन करने पर मुझे रॉबरी का कोई आइडिया हासिल हो ही जाए।
यानि मुझे इस शख्स से बातचीत करनी ही चाहिये, भले ही कोई फायदा ना हो लेकिन सफर तो कट ही जाना था।
“इरादा तो मेरा भी ऐसा ही था प्रेम चोपड़ा जी....।” मैं विल्स में कश लगाते हुए बोला—“सच तो ये है कि मैं इसी इरादे से ही घर से निकला हूं। पड़ोस में यंग डैथ हो जाने की वजह से मैं टेंशन में था और चाहकर भी कोई आइडिया नहीं सोच पाया। तब मैंने हिल स्टेशन का प्रोग्राम बनाया।”
“क्या आप बैचलर हैं पाठक जी?”
“नहीं तो। शादीशुदा हूं। तीन साल का एक बेटा भी है।”
“कमाल है!” सिगरेट के टोटे को चलती बस से बाहर फेंकने पर वो थोड़ा हैरानी जताते हुए बोला—“आपको तो बीवी और बेटे को भी साथ लाना चाहिये था। इस बहाने वो भी घूम-फिर लेते।”
“वो लोग मेरे साथ चले थे लेकिन वो अपनी इच्छा से छुटमलपुर उतर गए। वहां ससुराल है मेरी।”
“यानि जाते वक्त आप उन दोनों को अपने साथ ले लेंगे।”
“नहीं। शुभम को...मेरे बेटे को स्कूल में एडमीशन दिलाना है। सो मिसेज तो कल या परसों निकल जाएगी। मेरा क्या भरोसा है कि कब वापसी हो। स्टोरी का प्लाट तैयार करके ही लौटूंगा मैं। हफ्ता या हफ्ते से ज्यादा भी लग सकता है। अ....अगर आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूं चोपड़ा जी?”
“भला मैं बुरा क्यों मानने लगा?”
“आपने अपना पूरा परिचय नहीं दिया।”
वो खिड़की से बाहर झांकते हुए बोला—“मेरी लाइफ बंजारे जैसी है। कोई निश्चित ठिकाना नहीं है। आज यहां तो कल वहां, और परसों न जाने कहा?”
“आप तो गोल-मोल-सी बात कर रहे हैं।” मैं थोड़ा शिकायती लहजे में बोला—“शायद आप अपना परिचय नहीं देना चाहते। थोड़ी देर पहले आपने खुद को खतरनाक इन्सान बताया था। किसी हादसे का जिक्र किया था। जिसकी वजह से आपका हुलिया ऐसा हो गया। लगता है कि आप पहुंची हुई चीज हैं। या वैसे ही तड़ी मार रहे थे जनाब।”
उसके भारी-भरकम जिस्म में झटका-सा खाया। चेहरा खुरदरा हो चला और आंखें सांप की आंखों की मानिन्द गोलाकार-सी होकर सिन्दूरी रंग में रंग गईं।
“मैं तड़ी-वड़ी नहीं मारा करता मिस्टर राइटर....।” एकाएक ही उसकी आवाज रेगमाल-सी खुरदरी व बर्फ-सी ठण्डी हो चली—“अगर मौका मिला तो आपको अपने रंग भी दिखलाऊंगा मैं। फिलहाल तो मैं आपकी मदद करनी चाहूंगा।” अन्तिम वाक्या के साथ वो पहले जैसा नार्मल हो चला था।
“कैसी मदद?” मैं उत्सुक हो चला।
उसने ईस्टमेन कलर वाले कोट से पनामा का मुड़ा-तुड़ा पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगाई और फिर बोला—“आप किसी रॉबरी के आइडिये के लिए हिल स्टेशन पर जा रहे हैं। आपको आइडिया मिल सकता है। एक क्या सौ आइडिये मिल कसते हैं।”
मेरा मन बल्लियों उछलने लगा।
तभी बस की स्पीड स्लो होती चली गई और फिर वह हल्के से धचके के साथ रुक गई।
मोहन्ड नामक स्थान आ गया था, वहां से चढ़ाई शुरू हो जाती थी।
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