कम्बख्त
आरे घुंघरू, लगता है कोई खास खबर ले के आया है?”
“तभी तो खुद चल के आया हूं साहब। वर्ना फोन न कर देता आपको।”
घुंघरू आगे बढ़ते हुए बोला।
“बैठ।”
घुंघरू एक कुर्सी खींचकर बैठा गया। सामने बैठे इंस्पेक्टर शेखावत को देखने लगा। काफी बड़ा और साफ-सुथरा ऑफिस का इंस्पेक्टर शेखावत था। जैसे वह किसी एस.पी. का ऑफिस हो।
दाईं तरफ दीवार पर एक ब्लैक बोर्ड पर सफेद पेंट से उन इंस्पेक्टरों के नाम लिखे थे जो कि पूर्व में उस थाने के एस.एच.ओ. रह चुके हैं। और हर नाम के आगे उसके यहां पर कार्यरत रहने की तारीख थी कि वह कब से कब तक वहां का ऑफिसर रहा।
सबसे अंत में शेखावत का नाम लिखा था...जिसकी यहां पर नियुक्त होने की तारीख दो साल पहले की थी तथा उसके आगे का खाना खाली था। जिसमें तब की तारीख भरी जानी थी जब वो इस थाने को छोड़ कर किसी और थाने में नियुक्त होता।
शेखावत के ऐन पीछे दीवार पर महात्मा गांधी की तस्वीर टंगी हुई थी। जिसके बराबर काले पेंट से लिखा था—
शामगढ़ पुलिस सदैव आपके साथ
यह जुमला अन्य जगहों पर बेशक पुलिस का एक मजाक माना जाता हो—लेकिन शामगढ़ में यह एक हकीकत थी। शामगढ़ में शेखावत एक ईमानदार और सख्त पुलिस वाले के रूप में जाना जाता था। वहां की जनता में पुलिस का खौफ नहीं था बल्कि लोग पुलिस को मित्रा के रूप में देखते थे। थाने में आने वाले किसी भी शिकायती से पुलिस इज्जत से पेश आती थी और शेखावत अपनी तरफ से हर किसी से पूरा न्याय करता था।
ऐसा नहीं था कि शेखावत पूरा ईमानदार था, जरूरत पड़ने पर वह रिश्वत लेने से भी नहीं हिचकिचाता था। लेकिन किसी गरीब से उसने कभी रिश्वत नहीं ली थी और न ही रिश्वत लेकर उसने किसी बेगुनाह को तंग किया था।
उसकी इसी ईमानदारी की वजह से कई बड़े नेताओं की, माफियाओं की कमाई में अड़चनें आ रही थीं। जिससे कि उन्होंने कई बार उसका तबादला कराने की भी कोशिश की, लेकिन शामगढ़ की जनता में वह इतना लोकप्रिय हो चुका था कि जैसे ही पब्लिक को पता चलता कि उसका तबादला हो रहा है। पब्लिक सड़कों पर उतर आती, धरने, प्रदर्शन होने लगते और सरकार को हारकर हाथ पीछे खींचने पड़ जाते।
इंस्पेक्टर शेखावत—पूरा नाम करम सिंह शेखावत करीब पैंतीस साल का इकहरे बदन वाला चेहरे से चुस्त और फुर्तीला नजर आने वाला गेहुंए रंग का लंबा-सा व्यक्ति था। अपनी लंबाई के कारण वह शरीर से काफी पतला नजर आता था। लेकिन उसके उभरे सीने तथा बाजुओं के डोले उसकी ताकत को प्रदर्शित कर उसके पतलेपन को कम कर रहे थे।
अभी तक शादी नहीं की थी उसने, सो वह अपनी जिंदगी के प्रति लापरवाह था।
हालांकि उसके पास दो रिश्ते भी आये थे, लेकिन संयोग नहीं बन पाये। एक बार लड़की ने उसे नापसंद कर दिया और दूसरी बार लड़की उसके मन को नहीं भाई।
पैंतीस साल का हो जाने पर भी उसकी अभी तक शादी नहीं हो पाई थी। इसका उसे जरा भी अफसोस नहीं था। उसके सामने बैठा घुंघरू भी उसी की उम्र का था, जो कि चेहरे से ही नशेड़ी नजर आता था।
घुंघरू शेखावत का खास खबरी था। जिसकी की गई कोई भी मुखबिरी आज तक गलत नहीं निकली थी।
शेखावत ने उसकी सुर्ख हो रही आंखों में झांका और थोड़ा आगे को झुकते हुए बाहें टेबल पर रखते हुए बोला—
“क्या खबर लाया है?”
“ऐसी खबर लाया हूं साहब कि आप सुनते ही उछल पड़ेंगे।”
“ऐसा क्या?” नाटकीय ढंग से शेखावत ने आंखें फैलाईं।
“बिल्कुल ऐसा! तभी तो मैं खुद चल कर आया हूं...वर्ना आपको फोन न कर देता।”
“सुना।” सीधा होकर शेखावत ने कुर्सी के हत्थे पकड़ लिये—“मैं उछलने के लिए तैयार हूं।”
“शामगढ़ में मुसीबत आ गई है साहब। वो भी एक नहीं दो-दो मुसीबतें, वो भी एक साथ।”
“मुसीबत!” शेखावत के माथे पर बल पड़ गये—“कैसी मुसीबत? कोई नाम भी तो होगा उन मुसीबतों का?”
“अर्जुन त्यागी और गौरी।” घुंघरू ऐसे बोला जैसे उसने दो विस्फोट किए हों।
सचमुच विस्फोट ही किए थे उसने...वो भी जबरदस्त विस्फोट किए थे। तभी तो शेखावत उछलकर खड़ा हो गया था।
“क्या?” उसके मुंह से निकला—“क्या नाम लिया तूने?”
“अर्जुन त्यागी और गौरी।” घुंघरू ने दोहराया।
शेखावत की आंखें फैल गईं। चेहरे पर एक साथ कई रंग आ कर लौट गए।
कुछ देर तक तो वह यूं ही आंखें फाड़े, मुंह खोले हुए देखता रहा...फिर उसके चेहरे पर एकाएक सख्ती के भाव उभर आए।
वह वापिस कुर्सी पर बैठा और गम्भीर होते हुए बोला—
“उन दोनों की मेरे को सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि यह यहां इस शहर में आयेंगे...इसलिए मैं उछल पड़ा।
लेकिन अब...अब मेरे को खुशी हो रही है कि यह दोनों हरामी यहां मेरे शहर में आ गए हैं।”
अब उछलने की बारी घुंघरू की थी।
“य...यह आप क्या कह रहे हैं साहब?”
“क्यों?” शेखावत ने मुंह बनाया—“गलत कहा मैंने?”
“माफी चाहूंगा हुजूर—सही कहा है आपने। हर शहर की पुलिस यही प्रार्थना करती है कि वे मनहूस उसके शहर में न आएं क्योंकि वो जहां भी जाते हैं वहां मार-काट शुरू हो जाती थी। गलियों में खून बहना शुरू हो जाता है और आप कह रहे हैं कि आपको खुशी हो रही है।”
शेखावत के होंठों पर जहर भरी मुस्कान फैल गई।
“यह तो तू भी जानता है कि मैं एक सच्चा पुलिसिया हूं...बड़ी से बड़ी तोप से भी मैं नहीं डरता। फिर यह क्या हैं?”
“ल...लेकिन जनाब...।”
“कोई आबेहयात नहीं पी रखा इन दोनों हरमियों ने...जो कोई इन्हें मार ही नहीं सकता। मौत तो इन्हें आनी ही आनी है। और यही इसी शामगढ़ में आनी है। बस यह जान ले कि उन दोनों हरामियों की कम्बख्ती उन्हें शामगढ़ में ले आई है। अब से पहले दोनों के भाग्य उनका साथ दे रहे थे, लेकिन अब...अब दोनों कमबख्त हो गए हैं। कम्बख्त का मतलब समझता है ना तू?”
“नहीं...हां हुजूर...कम्बख्त मतलब कम भाग्य वाला—जिसका भाग्य साथ न दे उसको कम्बख्त कहते हैं न?”
“बिल्कुल...और यहां आकर समझ ले उनकी कम्बख्ती शुरू हो गई है।”
“फिर तो जनाब...अर्जुन त्यागी पर लगा इनाम मेरा होगा।”
“बिल्कुल होगा।” हंसा शेखावत—“और उसके मरते ही मेरी तरफ से भी तेरे को इनाम मिलेगा।”
“आमीन...।” घुंघरू ने सीने पर हाथ रखा।
“अब बोल...कहां छुपे हैं दोनों?” कहते हुए शेखावत पुनः टेबल पर बांह रखते हुए थोड़ा आगे को झुक गया।
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