जहरभरी
राजन शुक्ला
रंजन की दोनों अंगुलियां ललिता की चिकतनी-अधनंगी पीठ को ठकठकाती हुई आहिस्ता-आहिस्ता उसकी गुदाज बांह की ओर बढ़ीं।
ललिता ने मुंह बिचकाकर ड्राईविंग सीट पर बैठे रंजन की ओर देखा, मगर रंजन विण्डस्क्रीन के पार ऐसे देख रहा था, मानो उसे बगल में बैठी ललिता की मौजूदगी का अहसास ही न हो।
ललिता के नथुने हौले से फूले-पिचके, उनसे एक गुब्बार भरी सांस भी निकली, जिसे रंजन ने सुनकर अनसुना कर दिया।
रंजन की अंगुलियां उत्साहित-सी आगे बढ़ी और ललिता के ठोस उन्नत शिखर पर दस्तक देने लगीं।
ललिता के होठों पर कड़ुवी मुस्कान उभरी।
“रंजन डियार!” अपने मन की कड़ुवाहट को मुस्कान की चाशनी में डुबोकर ललिता ने कातिल नजरों से रंजन की ओर देखा।
“यस डार्लिंग!” रंजन की अंगुलियों ने इस बार और फुर्ती से उस गर्वीले शिखर को ठकठकाया।
“एक बात पूछूं?” ललिता का स्वर उसी तरह चीनी की चाशनी में पगा हुआ था।
“बोलो डार्लिंग!” अपने हर शब्द पर रंजन की अंगुलियों ने ठकठकाहट भरी ताल दी।
“आज बहुत मूड में हो?”
“यस डार्लिंग!”
“घर जाते ही प्रोग्राम बनाओगे?”
“प्रोग्राम तो मैं अभी बना चुका हूं।” अपनी धुन में खोये रंजन ने धीरे-से स्टेयरिंग घुमाया।
“अच्छा....!” ललिता ने आंखें चौड़ी करके उत्सुकता भरी हैरानी जाहिर की।
“भीतर घुसते ही दरवाजा बन्द और....!” रंजन जोश के साथ बोला—“लाइट ऑफ।”
“फिर?”
“फिर मैं, तुम और बिस्तर।”
“फिर?”
“फिर मैं....!” अपने ख्यालों की सुखद दुनिया में खोया रंजन खुशी से झूमता हुआ बोला—“तुम्हारी बॉडी के एक-एक पार्ट को ऐसे किस करूंगा कि मजा आ जायेगा।”
“और फिर?” ललिता ने उसी सपाट स्वर में पूछा।
“फिर मत पूछो।” रंजन ने इस बार पूरे जोश के साथ अपनी अंगुलियों से ठकठाहट पैदा की—“क्योंकि आज मेरे भीतर लावा उबल रहा है। एक बार खेल शुरू होने दो।”
“और फिर-?” ललिता के होठों पर जहरीली मुस्कान उभरी—“हमेशा की तरह टांय-टांय फिस्स। लावा बहते ही तुम करवट बदलकर सो जाओगे और मैं सारी रात करवट बदल-बदल कर जागती रहूंगी।”
रंजन की अंगुलियों की रफ्तार धीमी हुई।
“वैसे-!” अपने स्वर को वैसा ही मीठा बनाते हुऐ ललिता फिर बोली—“तुमने कभी अपनी मां से एक बात पूछी?”
“कौन-सी बात?” रंजन ने फिर स्टेयरिंग घुमाया।
“यही कि....!” ललिता का होंठ नफरत से तिरछा हुआ—“उसका कौन-सा खसम तुम्हारा असली बाप था?”
सवाल सुनते ही रंजन ने अचकचा कर इस तरह अपना बायां हाथ वापिस खींचा, मानो वह किसी तेज करंट पर पड़ गया हो।
उसके चेहरे पर एक साथ गुस्से की छटपटाहट, शर्म, झिझक और मजबूरी के मिले-जुले चिन्ह उभरे।
ललिता ने उसके चेहरे के पल-पल बदलते रंगों को देखा और फिर वह अचानक ही जोर-जोर से ठहाके लगाने लगी। रात के सन्नाटे में उसके ठहाके मानो रंजन के कानों के पर्दे फाड़ने लगे।
वह सहमकर खामोश हो गया। उसने बीस साल पुराने मॉडल की एम्बेसडर की स्पीड कुछ और बढ़ा दी।
आज शाम रंजन के बचपन के दोस्त दिनेश वर्मा की शादी की वर्षगांठ थी। खुशी के इस मौके पर उसने अपने सभी दोस्तों और उनकी पत्नियों को आमन्त्रित किया था। रात बारह बजे तक उसके घर में अच्छा-खासा गुलगपाड़ा रहा था। महफिल में मौजूद मेहमानो ने व्हिस्की को पानी की तरह इस्तेमाल किया था। यह हैरानी की बात थी कि अच्छे-खासे पियक्कड़ रंजन ने व्हिस्की को हाथ भी नहीं लगाया था। अपने बिगड़े मूड को ठीक करने के लिये ललिता अक्सर एक-दो पैग ले लिया करती थी मगर आज की रात उसने भी सभी से हाथ जोड़कर क्षमा याचना कर ली थी। इसकी एक वजह रंजन की खटरा सफेद एम्बेसडर भी थी। उन दोनों पति-पत्नी को पचास किलोमीटर का सफर तय करके घर लौटना था और एम्बेसडर के मूड का कुछ पता नहीं चलता था। वह कभी भी, कहीं भी अड़कर खड़ी हो जाती थी और फिर उसे मनाने के लिये रंजन को घण्टों अपने हाथ काले-पीले करने पड़ते थे। ऐसी हालत में ललिता भी गुस्से से चीखने-चिल्लाने लगती थी।
वह पूर्णिमा की चांदनी रात थी और दिसम्बर का महीना था। हवा में जरा ज्यादा ठण्डक थी। घर पहुंचने के लिये उन्हें अभी आधा घण्टे का सफर पूरा करना था।
सड़क लगभग सूनी पड़ी हुई थी। जब भी कभी कोई वाहन एम्बेसडर को पीछे छोड़कर आगे निकल जाता था, तो ललिता का गोरा-गोरा चेहरा सख्त-सा हो जाता था और उसके गुलाब-सी पंखुड़ी जैसे सुर्ख-रसीले होंठ हल्के से टेढ़े हो जाते थे।
“एक बात बोलूं डार्लिंग?” कुछ साहस-सा जुटाता हुआ रंजन धीरे से बोला।
“बोलो!” ललिता ने उदासीन स्वर में इजाजत दी।
“तुम मुझे इतना एवायड क्यों करती हो?” रंजन ने दु:खी स्वर में पूछा।
बदले मे ललिता ने गर्दन घुमाकर रंजन को सिर से पैर तक बढ़े ध्यान से देखा। दुबला-पतला, दो सरल और समानान्तर रेखाओं के बीच सिमटा-सा बदन, गेहुंआ रंग, सिर के आगे के आधे बाल गायब, आंखों पर मोटे शीशों वाला चश्मा, भीतर की ओर पिचके गाल और सूखे-पतले होठों के ऊपर हल्की-सी मूंछे।
भीतर-ही-भीतर ललिता को उबकायी-सी आती हुई महसूस हुई। उसने गर्दन घुमाकर खिड़की के पार यूं ही झांकने की कोशिश की।
“तुमने कुछ कहा नहीं?” रंजन ने फिर कहा।
“तुमने आम देखा है?” ललिता ने शुष्क स्वर में पूछा।
“खाया भी है।”
“फिर तो तुमने उसकी चूसी हुई गुठली को अच्छी तरह देखा होगा?”
“हां! देखा है।” रंजन ने हौले से गर्दन हिलायी।
मगर अभी तक उसे ललिता की बात का मतलब पता नहीं चला था।
“अगर तुम....!” ललिता एक-एक शब्द पर जोर देती हुई बोली—“वो चूसी हुई गुठली होते, तो भी मैं तुमको अपने होठों से लगा लेती डियर।”
“यानि....!” रंजन की खोपड़ी मानो हवा में उड़ी—“तुम मुझे आम की सूखी गुठली समझती हो?”
“नहीं! मैं तो तुम्हें....!” ललिता की खूबसूरत आंखों में चिंगारियां-सी सुलगीं—“वह भी नहीं समझती।”
“तो फिर?”
“सच बोलूं?”
“बोलो!”
“तुम तो किसी निचोड़े हुये नींबू के जैसे हो, एकदम खट्टे, बेस्वाद और बेमतलब।”
रंजन के दिल पर जैसे घूंसा पड़ा।
उनकी शादी को लगभग सात साल हो चुके थे। ललिता की नजरों में उसकी क्या औकात है, इस कड़ुवी सच्चाई का अहसास रंजन को बहुत पहले से ही था मगर आज ललिता के मुंह से सुनकर उसके दिल को गहरा सदमा-सा लगा। उसकी आंखें कुछ पल के लिये मुंद गयीं।
सहसा एम्बेसडर लहरायी और सड़क छोड़कर कच्चे में उतरती चली गयी।
ललिता के मुंह से हल्की-सी चीख निकली।
रंजन ने फौरन ब्रेक लगाये। गाड़ी फिर लहरायी और रुक गयी।
खौफ से भरे रंजन के चेहरे पर पसीने की ढेर-सी बूंदे छलछला आयीं।
“अगर अभी एक्सीडेंट हो जाता तो?” ललिता जोर-से चीखी।
रंजन ने जवाब नहीं दिया।
तभी सूनी सड़क पर सामने की ओर से दो हैडलाईट्स तेजी से करीब आती हुई महसूस हुईं।
हैडलाईट्स तेजी से इधर-उधर घूम रही थीं।
इससे पहले कि रंजन व ललिता कुछ समझ पाते, वो हैडलाईट्स तेजी से करीब आयीं और सड़क से उतरकर सीधे उन्हीं की एम्बेसडर की ओर बढ़ने लगीं।
ललिता फिर जोर से चीखी।
रंजन को भी लगा जैसे वो दोनों हैडलाईट्स उनकी एम्बेसडर में घुस जायेंगी। उसने दहशत से अपनी आंखें बन्द कर लीं।
मगर खतरा टल गया।
तभी एक जोरदार आवाज हुई और फिर चारों ओर पहले जैसा ही सन्नाटा छा गया।
¶¶
इस बार का वह सन्नाटा बड़ा भयावह था।
“यह तो....!”
सहसा ड्राअर से टार्च निकालकर कार से बाहर आता हुआ रंजनर जोर से बड़बड़ाया—“सचमुच एक्सीडेंट है। पता नहीं कोई बचा भी है या नहीं।”
तभी ललिता भी फुर्ती से बाहर आयी और रंजन की बांह पकड़कर उसे टोकती हुई बोली—“किस मुसीबत में पैर डाल रहे हो अपना? यह पुलिस केस है। एक बार धरे गये, तो फिर आसानी से छुटकारा नहीं मिलेगा।”
“मगर....।” रंजन बेताबी से इधर-उधर देखता हुआ बोला—“उन्हें हमारी जरूरत हो सकती है।”
“भाड़ में जायें वो और भाड़ में जाओ तुम। तुम मुझे अभी....!” ललिता अपनी बात पर जोर देती हुई बोली—“घर पहुंचा दो बस।”
“मगर....!” रंजन ने फिर कुछ कहना चाहा।
तभी दूर से ही एक साथ कई पुलिस जीप और पेट्रोलिंग गाड़ियों के सायरन बजने की आवाज आने लगी।
“लो! अब बचाओ अपनी जान। मैं न कहती थी कि....!” ललिता रंजन के कान में फुसफुसाती हुई बोली—“इसमें मुसीबत ही मुसीबत है।”
रंजन सोच में पड़ गया।
उसे लगा कि ललिता ठीक ही कह रही थी। एब बार पुलिस के चक्कर में फंसे नहीं कि बचना मुश्किल। अखबारों में ऐसी खबरें कभी-कभी पढ़ने को मिल जाती थीं। लोगों को भी ऐसा ही कहते-सुनते पाया था रंजन ने।
सायरन की तेज आवाजें लगातार पास आ रही थीं।
ललिता ने रंजन की बांह कसकर पकड़ी और उसे लगभग खींचते हुए कार में ले गयी।
तभी जीप और पेट्रोलिंग गाड़ियों का शोर सड़क से गुजरा और सीधा चलता चला गया।
“हे भगवान! यह सब....!” रंजन गाड़ी स्टार्ट करने की कोशिश करते हुए बड़बड़ाया—“क्या चक्कर है?”
ललिता ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया मगर कार भी स्टार्ट नहीं हुई।
रंजन ने फिर कोशिश की।
“क्या हुआ?” ललिता ने बेचैनी से पूछा।
“स्टार्ट नहीं हो रही है।”
“तो उतरो बाहर और....!” ललिता झल्लाकर बोली—“घुसाओ सिर बोनट के भीतर। फिर भी स्टार्ट नहीं हुई तो पड़े रहो सारी रात यहां। यह भी हो सकता है कि पुलिस का यह काफिला अभी थोड़ी देर में वापिस लौटे और हमें तलाश कर ही ले। ऐसा हुआ, तो फिर गुजारना सारी रात हवालात में।”
रंजन ने ललिता की बकवास और ज्यादा नहीं सुनी। वह टॉर्च लेकर एक बार फिर कार से बाहर आ गया और बोनट उठाकर इंजन को देखने लगा। बेचैनी से पहलू बदलते हुए ललिता कार में ही बैठी रही।
कुछ ही देर बाद वह भी कार से बाहर आयी और रंजन से बोली—“कुछ पता चला?”
“देखता हूं।” रंजन ने टॉर्च की लाईट को इधर-उधर घुमाया।
तभी सन्नाटे में कोई कराहट-सी गूंजी।
ललिता से ज्यादा रंजन चौंका।
“लगता है कि कोई घायल है।” सीधे खड़े होकर उसने आवाज की दिशा में टॉर्च की लाईट फेंकी।
“तुम अपना काम करो।” ललिता गुर्रायी।
“मगर वहां कोई मर सकता है।” इस बार रंजन ने अपनी बात पर हल्का जोर दिया।
“और पुलिस....!”
“पुलिस हमारी मदद के लिये होती है, हमें मुसीबत में डालने के लिये नहीं। उसे अपना काम तो पूरा करना ही होता है। उसके लिये अगर हमें थोड़ी-बहुत मुसीबत भी उठानी पड़े तो कोई बात नहीं। फिर भी, अगर तुम मुसीबत से बचना चाहती हो, तो यहीं बैठो कार में।”
और वह टॉर्च की लाईट इधर-उधर डालता हुआ आगे बढ़ गया।
सहसा उसके कानों में फिर कराहट सुनायी दी।
इस बार टॉर्च की रोशनी ठीक निशाने पर पड़ी।
वह एक जीप थी जो खेत के पास पीपल के एक विशाल वृक्ष से टकरायी हुई थी।
रंजन तेज कदमों से आगे बढ़ा।
पास जाकर उसने दिल दहला देने वाले नजारे को अपनी आंखों से देखा। जीप में कुल मिलाकर तीन आदमी थे, जिनमें दो निश्चित रूप से मर चुके थे। उनमें से एक का भेजा बाहर निकल आया था और एक की गर्दन टूट कर लटक चुकी थी।
तीसरा आदमी जिन्दा था और कराह रहा था मगर उसकी हालत भी गम्भीर थी। उसकी टांगों का कचूमर निकल चुका था और शायद कई पसलियां टूट चुकी थीं।
उसके हाथों में नीले रंग का एक बहुत बड़ा और भारी-सा कैनवास बैग था। जिसे उसने अपने दायें हाथ से पकड़ रखा था।
रंजन ने उसके माथे पर यूं ही हाथ रखा।
उसने आंखें खोलकर उसकी ओर देखना चाहा मगर वह सिर्फ कराहकर रह गया।
तभी रंजन को अपनी बगल में चुपचाप आकर खड़ी हुई ललिता की मौजूदगी का अहसास हुआ।
“शायद यह बच जाये।” रंजन ने सहानुभूति से भरी नजरों से उस घायल आदमी को देखते हुए कहा।
ललिता ने जवाब नहीं दिया। उसने हाथ बढ़ाकर नीले रंग के उस कैनवास बैग को यूं ही टटोला।
घायल आदमी को जैसे ही उसकी इस हरकत का अहसास हुआ, वह गुर्राया मगर उसकी गुर्राहट फिर कराहट बनकर रह गयी।
“क्या करती हो?” रंजन ने ललिता को टोका।
मगर ललिता ने शायद सुना ही नहीं।
उसने धीरे से बैग की चैन खींची।
अन्जाने में यूं ही रंजन की टॉर्च की रोशनी बैग पर पड़ी।
उन दोनों की सांस जैसे हलक में अटक गयी।
बैग सौ, पांच सौ और हजार रुपये की गड्डियों से भरा पड़ा था।
¶¶
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus