इंस्पेक्टर
राकेश पाठक
“ये क्या है?”
“ढाई सौ रुपये हैं, दरोगा जी!”
“लेकिन मुझे क्यों दिखा रहे हो?”
“दिखा कहां रहा हूं...बल्कि आपको दे रहा हूं।”
“अच्छा...!” दरोगा लहरी सिंह ने आंखें फाड़ीं और फिर भिखारी समान हाथ फैलाकर बोला—“लाओ।”
मुच्छड़ गिरधर ने झट से रुपयों की गठरी-सी दरोगा लहरी सिंह की मुट्ठी में दबोच दी। हाथों में नोटों की गर्मी पहुंचते ही दरोगा का मोटा मुंह सुर्ख हो गया। उसकी कमानीदार मूंछें तनती चली गईं। इधर-उधर खड़े सिपाहियों को देखने के बाद बोला—“अब यह भी बता दो कि क्या काम करवाना है?”
गिरधर ने सहमकर सिपाहियों को देखा तो लहरी सिंह रौब के साथ बोला—“इनसे पर्दे की कोई जरूरत नहीं है। बेधड़क कहो। ये सब हमारे अण्डर में हैं।”
“ही...ही...ही...” गिरधर ने खीसें निपोरते हुए कहा, वो भी सरगोशी में—“आप तो जानते ही हैं हुजूर कि मैं कच्ची दारू खींचता हूं? मेरी भट्टी पर रामनाथ हरिजन भी काम करता है। आज दोपहर...उसकी लुगाई पारो भट्टी पर खाना लेकर आई थी। साली गजब की हुस्न वाली है। तीन बच्चे हो गए हैं उसके...लेकिन क्या मजाल कि जवानी की पकड़ जरा भी ढीली हुई हो। टुन्न तो मैं था ही। साली कू छेड़ दिया, लेकिन ससुरे रामनाथ ने मुझे छेत दिया, खूब जलील किया। आप तो जानते ही हैं कि गांव के हरिजनों में बहुत एक्का है! आप...मेरा मतलब है कि...।”
“हूं...।” दरोगा लहरी सिंह ने हुंकार भरी—“तो रामनाथ ने तुम पर हाथ उठाया है?”
“जी दरोगा साहब!”
“अच्छा एक बात बताओ...।” लहरी सिंह चमकीली आंखों के साथ गिरधर के कान पर झुका—“क्या रामनाथ की जोरू घणी सुन्दर है?”
“गिरधर उत्साहित स्वर में फुसफुसाया—“सोहणी क्या थोड़ी घणी...कसम से पटाखा है। हाय...क्या जोबन है। टमाटर-सा रंग! गोल-मटोल जिस्म! ये...बड़ी-बड़ी छाती! इतना भारी पिछवाड़ा! कसम से पका हुआ कचरा है साली।”
लहरी सिंह की मूंछें तक सुलग उठी। उसका थोड़ा मोटा जिस्म हल्के-हल्के कांप रहा था। उत्तेजनावश! करेले जैसे होठों से लार टपक रही थी। आंखों में मक्कारी की स्पष्ट छाप थी।
“ठीक है...तुम जाओ...।” वह निर्णायक स्वर में बोला—“तुम रामनाथ से अपनी पिटाई का बदला ही लेना चाहते हो। तुम्हारा काम...हम पूरा कर देंगे।”
¶¶
धर्मपुर...दस हजार के करीब की आबादी वाला गांव। गांव में लगभग सभी जाति के लोग रहते थे, लेकिन ज्यादा बाहुल्य गरीब व पिछड़ी जाति का तबका था। गांव के जमींदार थे...ठाकुर हरिस्वरूप! वे गांववालों के लिए भगवान थे। उनका कोई हुक्म प्रधानमन्त्री से कतई कम नहीं था।
इस वक्त चौपाल पर खासी चहल-पहल थी। कठिन परिश्रम के पश्चात अब ग्रामीण मनोरंजन में लिप्त थे। नीम के वृहद पेड़ के तले छः सात चारपाई बिछी थीं। आज के चार महारथी दड़ा (डबल हैण्ड) खेल रहे थे। बाकी के लोग उत्साहीपन से शोर मचा रहे थे। बूटों की जोरदार आहट सुनकर सभी का मन ताश से उचट गया। सामने से आ रहे, चार सिपाहियों पर उनकी नजर जम गई। सबको सांप-सा सूंघ गया। सभी हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
चारों सिपाही कलेक्टर की तरह सीना ताने चले आ रहे थे, उनके जिस्म पर खाकी रंग की सूती वर्दी तथा हाथों में लाठी थी। चारों चौपाल के सामने आकर रुके! उनके चेहरे पर ऐसा ही रौब था—जैसा कि भारतीयों के समक्ष अंग्रेज अफसरों का होता था।
“जै राम जी की सरकार!”
“नमस्ते जी...!”
ग्रामीणों ने अलग-अलग तरीकों से उन्हें सम्मान दिया।
“ऐ...।” एक सिपाही गुर्राया—“तुममें से रामनाथ कौन है?”
“मैं हूं माई...बाप...!” एक आदमी दोनों हाथ जोड़े आगे सरका। उसे कसरती जिस्म पर मैली-सी धोती तथा फटी हुई बन्डी थी।
“हूं...तो तू है...?” एक सिपाही ने उसे घूरा और बड़े जोर का थप्पड़ मार कर बोला—“साले चोर! चोरी करके इस गांव की साख खराब करता है। चल थाने। दरोगा जी तुझे बुला रहे हैं।”
रामनाथ सूखे पत्ते समान नाचता हुआ बोला—“नहीं...नहीं...हुजूर, मैंने चोरी नहीं की। मुझे थाने मत ले जाइए। मैं गरीब मारा जाऊंगा।”
“तो तू नहीं चलेगा?” दूसरा सिपाही दहाड़ा।
रामनाथ कांपकर रह गया।
चारों के नैन मिले और अगले ही पल...।
“आह...मर गया हुजूर...मुझे मत मारो हुजूर...ओह...आह...मुझे माफ कर दीजिए...मैंने कोई चोरी नहीं की...आह...!”
रामनाथ जमीन पर बिछा हुआ इधर-से-उधर, उधर-से-इधर पटखनियां खा रहा था। वह बुरी तरह चीख-चिल्ला रहा था। तड़प रहा था। गिड़गिड़ा रहा था। उसके जिस्म पर चारों सिपाहियों के ताबड़तोड़ लट्ठ पड़ रहे थे मानो धोबी किसी कपड़े को पीट रहे हों।
रामनाथ कि मर्मांतक चीखों से चौपाल थर्रा उठी। बाकी लोग सहमे हुए-से ठहरी हुई निगाहों से तमाशा देख रहे थे। रामनाथ का जिस्म लहूलुहान हो चुका था।
दो सिपाहियों ने रामनाथ की टांगें पकड़ीं और किसी मुर्दा जानवर की तरह घसीटते हुए थाने की तरफ चल दिए। बाकी के दोनों सिपाही अभी भी रोते-चीखते, गिड़गिड़ाते रामनाथ पर लाठी, लातें बरसा रहे थे।
इतना साहस किसमें था कि वह बेरहम-जल्लादों के चुंगल से एक विवश-लाचार इंसान को छुड़ा सके?
¶¶
दरोगा लहरी सिंह का मोटा थोबड़ा सूजा हुआ था। अन्दर को गड़ी हुई आंखें-लाल सुर्ख हो रही थीं। उसका थोड़ा मोटा जिस्म कांप रहा था मानो उसके ऊपर काली माई आई हुई थी। उसके सामने लहूलुहान रामनाथ खड़ा था। रामनाथ अभी भी बिलख रहा था। उसके वस्त्र तार-तार हो चुके थे।
“क्यों बे...?” लहरी सिंह दहाड़ा—“तूने गिरधर लाल के हजार रुपये क्यों चुराए थे?”
“ये आप क्या कह रहे हैं सरकार...?” रामनाथ दोनों हाथों को जोड़कर गिड़गिड़ाया—“मालिक ने आपसे झूठ ही शिकायत की है। मैंने उनके रुपये नहीं चुराए। हां...उन पर हाथ जरूर उठाया था।”
“क्यों उठाया था...?” लहरी सिंह जड़ से उखड़ पड़ा।
“सरकार...!” रामनाथ सहमा-सा बोला—“मालिक ने मेरी जोरू को गन्दी नजरों से देखा था। उन्होंने पारो की छाती पकड़ी थी...।”
तड़ाक...! थप्पड़ मारकर लहरी सिंह बोला—“सूअर के बच्चे! गिरधर तेरी लुगाई को खा तो नहीं गया था। साले...रुपये लेकर तो अपनी लुगाई से धन्धा करवाता है। हमें सब पता है। तेरी लुगाई एक नम्बर की रण्डी है।”
“ये...ये झूठ है।” रामनाथ ने सहमते हुए विरोध प्रकट किया—“हम नीच जाति के जरूर हैं, लेकिन इज्जत को नहीं बेचते।”
“खामोश साले...!” लहरी सिंह खड़े होकर बड़े जोरों से चीखा। इतने जोरो से कि रामनाथ की रूह कांप उठी।
“इसे बन्द कर दो...।” लहरी सिंह सिपाहियों से बोला—“साले को तीन दिन तक भूखा प्यासा रखो। हाड़-गोड़ तोड़ दो इसके! साले को नानी याद आ जाएगी। इसकी तो मां की...।”
“सरकार मुझे छोड़ दीजिए...।” सिपाहियों के चंगुल में फंसा रामनाथ चीखा—“गरीब आदमी हूं सरकार! बच्चे भूखे मर जाएंगे। घर में अनाज का एक भी दाना नहीं है।”
“बच्चों की फिक्र क्यों करता है बहन के...!” दरोगा ने भद्दी-सी गाली बकी—“तेरी लुगाई एक ही रात में चार-पांच के तले जाकर नोट कमा लाएगी।”
रामनाथ चीखता-चिल्लाता ही रह गया, जबकि सिपाहियों ने उसे घसीटकर सीलन युक्त कच्चे फर्श वाली कोठरी में ठूंसकर दरवाजा बन्द कर दिया।
¶¶
ठक...ठक...ठक...।
दरवाजे पर हुई जोरदार दस्तक को सुनकर पारो चौंक पड़ी। वह रो रही थी। शाम से लेकर अब तक यानी आधी रात तक। उसे पता चला था कि उसके पति को चौपाल से चार सिपाही बुरी तरह मारते-पिटते ले गए थे। वह जमींदार हरिस्वरूप की हवेली में गई थी, लेकिन पता चला कि जमींदार साहब पड़ोस के गांव में हो रही शादी में गए हुए थे। हवेली में जमींदार का बेटा रंजीत था। उसने रंजीत से मिलने की जुर्रत भी न की। रंजीत अय्यास किस्म का खूंखार इंसान था। उसकी पत्नी एक बच्चे को जन्मते ही मर गई थी। अब वह भी दूर गांव की बहू-बेटियों से अपनी पत्नी की इच्छा पूर्ति करता था।
वह रंजीत से बिना मिले ही लौट आई थी। फायदा भी कुछ न था। रंजीत और दरोगा यार थे और रंजीत तो उसके पति का वैसे भी दुश्मन था। गिरधारी से पहले उसका पति हवेली में नौकर था। उसके हाथ से गर्म तेल की छीटें रंजीता की पीठ पर पड़ गई थीं। दो छींटे जांघ पर भी और रंजीत ने उसके पति को अधमरा करके नौकरी से निकाल दिया था, क्योंकि डॉक्टर ने कहा था कि रंजीता यानी रंजीत की बेटी की पीठ तथा दाईं जांघ पर पड़े गर्म तेल के निशान जिन्दगी भर रहेंगे।
दोबारा हुई दस्तक पर वह चौंकी। ख्यालों को झटकते हुए वह उठी और दरवाजा खोलने चली। वह समझ नहीं पा रही थी कि इस वक्त कौन आ मरा है?
वह छिटककर पीछे हट गई। खुले दरवाजे पर पांच सिपाही खड़े थे, पारो को थाने ले जाने के लिए।
¶¶
“तेरे खसम ने गिरधर के एक हजार रुपये चुराए थे।” दरोगा लहरी सिंह लोलुप आंखों से पारो की जवानी का स्वाद लेते हुए होठों को जीभ से तर करता हुआ बोला—“उसका कहना है कि वे रुपये उसने तुझे दिए थे?”
“नहीं दरोगा जी...!” पारो रोने लगी—“उन्होंने रुपये नहीं चुराए। न ही मुझे दिए।”
“चोप...हरामजादी! झूठ बोली तो खाल उतार दूंगा। बोल...रुपये कहां छुपाए हैं तूने?”
“मैं...सच बोल रही हूं...दरोगा जी...!” वह गिड़गिड़ाई।
“दीवान जी!” लहरी सिंह पास खड़े काले-कलूटे दीवान से बोला—“ये ऐसे नहीं बताएगी। भीतर ले जाकर इसकी तलाशी लेनी पड़ेगी।”
दीवान पारो को घसीटता हुआ लहरी सिंह के कमरे में ले गया। लहरी सिंह ने भीतर घुसकर दरवाजा बन्द किया तो पारो की जान सूख गई। वह थूक सटकते हुए बोली—“ये आप क्या कर रहे हैं दरोगा जी?”
सुर्ख चेहरे के साथ लहरी सिंह बोला—“हमें तेरी तलाशी लेनी है। नहीं देगी तो...तेरे खसम को जान से मार डालेंगे। चल, चुपचाप कपड़े उतार।”
“नहीं...।” पारो चीखी। वह भयभीत थी।
“दीवान जी...! इतने रुपये छिपा रखे हैं। तभी तो यह मना कर रही है। इसके कपड़े उतारो।”
दीवान पारो पर झपटा। पारो ने विरोध करना चाहा तो दीवान कोने में रखे डंडे को उठाकर पारो पर पिल पड़ा। डंडे के करारे प्रहारों से पारो बिलबिला उठी। दीवान ने जबरन उसकी धोती खोल दी। लहरी सिंह ने धोती को उठाकर सूंघा और बुरा मुंह बनाकर परे फेंक दी। पारो विरोध पर डटी तो दीवान ने उसे जमीन पर पटक दिया और उसके पेट पर बैठकर ब्लाऊज खोलने लगा।
पारो का दम घुटने लगा तो चीखी—“दरोगा जी...!”
लहरी सिंह के इशारे पर दीवान पारो को ऊपर से उठा। पारो पेट को पकड़े गहरे गहरे सांस भरने लगी।
“सुन री...!” लहरी सिंह गरजा—“साफ बात ये है कि तुझे अपने खसम को छुड़ाने के लिए रिश्वत देनी होगी। नहीं देगी, तो रामनाथ को इतना पीटा जाएगा कि तुझे राण्ड होना पड़ेगा।”
“नहीं...।”
“तो तू रिश्वत देने को तैयार है?” लहरी सिंह के मोटे चेहरे पर मक्कारी थी।
“मगर...मेरे पास पैसे नहीं है।” पारो विवशता से बोली।
“तू उसकी चिन्ता न कर।” लहरी सिंह मुस्कुराया—“दीवान...जी...!”
दीवान चुपचाप बाहर चला गया।
¶¶
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus