हत्या एक पहेली
सुनील प्रभाकर
“भगवान के वास्ते रोओ मत सुषमा! यदि तुम्हारे रोने-धोने का स्वर सुनैना के कानों तक पहुंच गया तो...गजब ही हो जाएगा।”
“गजब तो पहले ही हो चुका है जी! मेरी फूल-सी बच्ची की भगवान ने आंखें छीन ली। ऊपर से ये सितम और हो गया! उफ्फ...ये सुनकर सुनैना के मन पर कैसी बीतेगी कि सुभाष चंद्र जी ने उसे अपनी बहू बनाने से इनकार कर दिया है! आखिर...आखिर हमारी अप्सरा जैसी बेटी में कमी ही क्या है?”
“भगवान के वास्ते धीमे बोलो सुषमा।” हरीश महाजन खुले दरवाजे के पार निगाहें फेंकते हुए फुसफुसाया—“हमारी सुनैना को अंधी हुए वक्त ही कितना गुजरा है। माना कि वह हमें दिखलाने के लिए हंसती खिलखिलाती रहती है, परंतु भीतर ही भीतर वह खून के आंसू रोती होगी।”
“हम उसका रिश्ता टूटने वाली बात कब तक छुपा सकते हैं?”
ठंडी-सी आह भरकर बोला हरीश महाजन—“ऐसी बातें भला कैसे छिपाई जा सकती हैं! परंतु कांच के गिलास में यदि खोलता हुआ पानी डाला जाए, तो वह चटक जाता है। कुछ दिनों पश्चात सुनैना स्वयं ही समझ जाएगी कि उसका रिश्ता टूट गया है।”
“मुझे सुभाष भाई साहब से ऐसी आशा कतई नहीं थी जी! उन्होंने तो आपकी वर्षों पुरानी दोस्ती का भी लिहाज नहीं किया। शायद वे दहेज की रकम बढ़वाना चाहते होंगे।”
“नहीं, ऐसी बात नहीं है। मैंने पचास हजार रुपये नगद देने की बात कही थी। परंतु नहीं माना वह। कहने लगा कि मैं अपने इकलौते बेटे के पल्ले एक अंधी लड़की को कैसे बांध सकता हूं। देखा जाए तो उसकी गलती भी नहीं है सुषमा। मान लो कि यदि उसकी जगह हम ही होते... तो शायद एक अंधी लड़की को अपनी बहू बनाने से इंकार कर देते। डॉक्टरों का कहना है कि हमारी सुनैना अब कभी उजाला नहीं देख सकेगी।”
“परंतु डॉक्टरों ने यह तो कहा है कि यदि कोई अपनी आंखें दान कर दे तो हमारी सुनैना फिर से दुनिया का रंगीन नजारा देख सकेगी। आप मुझे जान से मार डालिए! मैं अपनी आंखें सुनैना को दान कर दूंगी। मैं बुढ़िया और जीकर करूंगी भी क्या? मेरी बच्ची का भाग्य तो संवर जाएगा।”
“कैसी अशुभ बातें कर रही हो मम्मी!”
सुनैना के स्वर ने दोनों को चौंकाया। दोनों की हालत रंगे हाथों पकड़े गए चोर की-सी हो गई।
“बे...बेटी।”
बला की खूबसूरत सुनैना हाथों को शून्य में लहराकर आगे बढ़ती हुई बोली—“आपको तो अभी बहुत जीना है मम्मी, आपकी ममता के साए से वंचित होकर मैं नहीं जी सकूंगी! आप मुझे अंधी क्यों समझती हैं?”
“यही तो हकीकत है मेरी बच्ची।”
“मैं किसी भी बात में आंखों वालों से पीछे नहीं हूं मम्मी।” सुनैना स्वयं ही टटोलकर सोफे पर बैठते हुए बोली—“मैं अपना सारा काम स्वयं ही करती हूं। किसी भी काम में मैंने दूसरे की मदद नहीं ली। नाश्ता व खाना भी अकेली बना लेती हूं! फिर आप दु:खी क्यों होती हैं?”
“बेटी सुनैना!” हरीश महाजन स्वर को सामान्य बनाए हुए बोला—“इस घर का तुम्हें आइडिया है। शायद हम भी आंखें मूंदकर यहां से घर के किसी भी हिस्से में जा सकते हैं। मालूम है कि फला सामान कहां रखा है, तो हम भी कुछ भी काम कर सकते हैं। परंतु तुम्हें कल को पराए घर जाना है। जहां तुम्हें नया वातावरण मिलेगा। घर से बाहर निकलकर तुम कोई भी काम करने का दावा नहीं कर सकतीं। जिंदगी एक घर में तो सिमटकर नहीं रह सकती।”
“आज कल बहुत से लोग अपनी आंखें दान करने लगे हैं डैडी! जल्द ही मुझे भी आंखें मिल जाएंगी। तब तक मेरी जिंदगी इसी घर में सिमटी हुई रहेगी। ये बात और होगी कि आप लोग मुझे बोझ समझने लगे हो।”
“बे...बेटी।” मम्मी और डैडी तड़प कर रह गए।
जबकि अपनी ही रो में कहती चली गई वह—“मैंने बाहर खड़े होकर आप दोनों की बातें सुनी। अंकल ने मुझे अपनी बहू बनाने से इनकार कर दिया। मुझे लेश मात्र भी दु:ख नहीं हुआ है। दु:ख तो तब होता, जब वे हमें धोखे में रखते या लालच में आकर दहेज की रकम बढ़वा देते। उन्होंने तो अपनी विवशता प्रकट करके दोस्ती को निभाया है। भला कोई बाप अपने इकलौते बेटे की शादी किसी अंधी लड़की से कैसे कर सकता है? यदि अंकल दोस्ती के नाम पर मुझे अपनी बहू बनाने को राजी हो जाते तो मैं यह कहती कि उन्होंने बाप के कर्तव्य का पालन नहीं किया। मैं स्वयं भी नहीं चाहती थी कि अंकल के बेटे की जिंदगी का तमाशा बन जाऊं।”
“बेटी...।” सुषमा महाजन सुबक पड़ी—“मैं तो तुझे सुहागिन के रूप में देखने के लिए ही जीवित हूं।”
आपकी इच्छा भी पूरी होगी मम्मी।” सुनैना अर्थ-पूर्ण मुस्कान के साथ बोली—“लड़के भले ही कुंवारे रह जाएं, परंतु लड़कियां तो सुहागिन बन ही जाती हैं। आपकी बेटी भी सुहागिन बनेगी।”
हरीश महाजन व सुषमा महाजन अवाक् से एक-दूसरे को घूरते चले गए।
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“मैं कुछ बोलूंगा तो बोलोगी कि बोलते हो। क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि आप अभी तक तैयार क्यों नहीं हुई हैं? ट्रेन छूटने में सिर्फ एक घंटा ही रह गया है।”
“मैं नहीं जाऊंगी जी।”
“कैसी बात करती हो सुषमा। आज तुम्हारी भतीजी की शादी है। वह भी इकलौती भतीजी की और तुम जाने से इंकार कर रही हो?”
“सुनैना की तबीयत ठीक नहीं है। भला मैं उसे अकेली छोड़कर कैसे जा सकती हूं?”
“क्या?” हरीश महाजन चिंतित हो उठा—। क्या हुआ है हमारी बेटी को?”
अपनी पत्नी का उत्तर सुने बिना ही सुनैना के कमरे में जा पहुंचा।
सुनैना कोई रोमांटिक गीत गुनगुना रही थी। किसी के कदमों की आहट सुनकर हड़बड़ाहट में उसने अपने ऊपर कंबल खींचा और चेहरे पर पीड़ा युक्त भाव समेटकर झूठ-मूठ ही कराहने लगी।
“सुनैना बेटी...!” हरीश महाजन बेटी के माथे को छूते हुए बोला—“तुम्हारी मम्मी कह रही है कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है!”
“कोई खास बात नहीं है डैडी। पेट में मामूली-सा दर्द है और हल्की ठंड महसूस हो रही है। मम्मी और आप तो ऐसे ही 'होपलेस' हो जाते हैं। आप मुझे लेकर इतना 'वरी' ना किया करें।”
“वरी कैसे ना करें बेटी! तुम हमारी एकलौती बेटी हो।”
कैसी बातें करते हो डैडी।” सुनैना गंभीर हो चली—“आप दीदी को कैसे भूल गए?”
हरीश महाजन का चेहरा सुलग उठा, क्रोधातिरेक आंखों में सुर्खी तैर उठी। दांतों को पीसते हुए वह बोला—“उस कमबख्त की याद क्यों दिला दी बेटी! मर चुकी वह हमारे लिए।”
“प्लीज डैडी...!” तड़प उठी वह—“दीदी के बारे में ऐसी बातें ना बोलिए। दीदी जहां भी हों सलामत हों।”
“उस कमबख्त के लिए प्रार्थना करना व्यर्थ है बेटी। उसने अपनी पसंद के लड़के से शादी करके हमारे मुंह पर थूका है। हमारे प्यार व अधिकारों की हत्यारी है वह। भगवान किसी को भी उस जैसी औलाद ना दे।”
“फिर भी वह आपका ही तो खून है डैडी! न जाने जीजाजी कैसे होंगे। दीदी कहां और किस हालत में होगी।”
“हमारी बला से कहीं भी हो वो।” हरीश महाजन के स्वर में अपनी बड़ी बेटी के लिए असीम घृणा छलक रही थी—“उसकी वजह से हमें अपना घर व शहर छोड़ना पड़ा। चलता हुआ बिजनेस समेटकर यहां नए सिरे से बिजनेस शुरू करना पड़ा। हमारी बर्बादी की जिम्मेदार है वह।”
“जो होना था... हो गया डैडी! आपको जीजी की खोज खबर लेनी चाहिए।”
“प्लीज बेटी! उस कमबख्त के बारे में कोई भी बात ना करो। मेरा खून फुंकने लगता है।”
“अरे! आप तो यहीं पर जमकर बैठ गए।” सुषमा महाजन भीतर प्रवेश करते हुए शिकायती लहजे में बोली—“आपकी गाड़ी छूटने में पौना घंटा रह गया है।”
“डैडी के साथ आप भी तो जा रही हैं मम्मी।”
“नहीं बेटी! मैं भला कैसे जा सकती हूं?”
“आपको जाना ही होगा मम्मी...।” जिद भरे स्वर में बोली सुनैना—“आपकी भतीजी की शादी है। आपके नहीं जाने से मामाजी बेहद दु:खी होंगे। आप मेरी चिंता ना करें दवा है मेरे पास। रही बात खाने-पीने की, सो मुझे कोई असुविधा नहीं होगी। कल दोपहर तक तो आप आ ही जाएंगे।”
और सुनैना की जीत के सामने उसकी मम्मी को पराजय मानते हुए कहना ही पड़ा—“तुम भला कहां मानने वाली हो। ठीक है, मैं जाने की तैयारी करती हूं। चलो जी...।”
मम्मी व डैडी के चले जाने पर—
सुनैना के गुलाबी व रस भरे होठ रहस्यमई मुस्कान से सनते चले गए।
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