घर का ना घाट का
उस आने वाले युवक को देखते ही रामभरोसे के हाथ-पांव फूल गए—चेहरे पर घबराहट उभर आई।
“अ....आओ अर्जुन भैया....म....मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था।”
अपनी हलवाई की दुकान की गद्दी पर बैठा रामभरोसे हकलाये स्वर में बोला।
अर्जुन त्यागी—!
खूबसूरत—चौबीस-पच्चीस साल का चौड़े सीने वाला एक टुच्चा गुण्डा। जिसकी बादहशाहत बस गलियों के कमजोर तथा शरीफ लोगों पर थी।
राह जाती लड़कियों को छेड़ना—किसी से पैसे छीन लेना—दूसरे चौथे दिन किसी की पिटाई कर देना ही उसका काम था। उसकी आवाज में एक खास दबदबा था—जिसके कारण थोड़े बहुत दिल-गुर्दे वाले भी उससे टकराने की हिम्मत नहीं करते थे।
बाप सिर पर था नहीं—केवल मां ही थी—वह भी अब बिस्तर पर पड़ी जिन्दगी की आखिरी सांस का इंतजार कर रही थी—और अर्जुन त्यागी मां की तरफ जरा भी ध्यान न देते हुए अपनी गुण्डागर्दी पर लगा हुआ था।
उसकी दीदा दिलेरी के कारण ही उस जैसे कुछ छोटे गुण्डे उसके चेले-चपाटे बन गए थे—जिसके कारण अर्जुन त्यागी का रौब कुछ ज्यादा हो गया था। इस स्ट्रीट गैंग से शरीफ तथा इज्जतदार लोग बचकर रहना ही ठीक समझते थे।
अर्जुन त्यागी ने घूरकर रामभरोसे हलवाई को देखा और आंखें निकालते हुए बोला।
“कब से कर रहा है यह धन्धा—?”
“बारह साल हो गए हैं अर्जुन भैया—तुम्हारी दया से दुकान ठीक चलती है—क्या खाओगे....ऐ छोकरे—अर्जुन भैया के लिए बर्फी ले के आ—साथ में लस्सी भी।”
रामभरोसे ने नौकर को आवाज लगाईं।
“मैं दुकान की बात नहीं कर रहा मादर....।” अर्जुन त्यागी ने भद्दी गाली निकाली।
रामभरोसे का चेहरा फक्क पड़ गया—“त....तो....?”
“कितनी बोतल खप जाती हैं रोज....?”
“क-कौन सी—कोका कोला की या पैप्सी की—।”
“तेरी तो मां की....।” अर्जुन त्यागी ने फिर गाली निकाली—“मेरे से मसखरी करता है—मैं दारू की बात कर रहा हूं....शराब की....।”
“य....यह क्या कह रहे हो अर्जुन भैया....।”
“मेरे से झूठ बोलेगा तो अभी तेरी दुकान का बेड़ा गर्क कर दूंगा—ऊपर से तेरे हाथ-पांव तोङूंगा सो अलग—इसलिए झूठ नहीं बोलना—मुझे पता है कि हलवाई की दुकान की आड़ में तू शराब बेचने का धन्धा भी करता है....सच-सच बता—कितनी बोतल बेचता है रोज—।”
“म....मैं सच कहता हूं अर्जुन भैया मैं....।”
“तेरी मां की....।”
अर्जुन त्यागी ने फिर से उसे गाली निकाली और उसे गिरहबान से पकड़कर खड़ा कर दिया।
“म....मुझे छोड़ दो अर्जुन भैया....मैं....मैं बताता हूं....।”
अर्जुन त्यागी ने उसे हल्के से धक्का दिया तो वह अपनी गद्दी पर गिर गया। उसका चेहरा बुरी तरह से फक्क् पड़ा हुआ था।
“अब बोल—कितनी बोतल बेचता है?” गुर्राते हुए पूछा अर्जुन त्यागी ने।
रामभरोसे ने पहले दुकान के बाहर नजर डाली—यह देखकर उसे इत्मीनान हुआ कि किसी ने भी उसे नहीं देखा—उसने पुनः अर्जुन त्यागी की तरफ देखा और धीमें और डरे हुए लहजे में बोला—
“बीस बोतल बेच लेता हूं....।”
“मेरे इलाके में रोज बीस बोतल शराब की बेचता है—और मुझे कुछ भी नहीं देता....।”
“क....कैसी बात करते हो अर्जुन भैया—त....तुम हुक्म तो करो।” खींसे निपोरते हुए बोला रामभरोसे—जबकि अंदर-ही-अंदर वह दहाड़ें मार-मार कर अर्जुन त्यागी को कोस रहा था—जो सिर्फ गुण्डागर्दी के बल पर उससे कमीशन बांधने वाला था।
अर्जुन त्यागी ने सोचने की मुद्रा बनाई और फिर बोला—
“पांच सौ रुपया रोज का और एक बोतल....।”
“य....यह क्या कह रहे हो अर्जुन भैया....इतना तो मुझे बचता भी नहीं।”
“बकवास नहीं—अर्जुन त्यागी ने जो कह दिया सो कह दिया—अब पहले पांच सौ का पत्ता निकाल, फिर बोतल—घबरा नहीं—खाली बोतल तेरी रही—दस रुपये में बिक जाएगी।”
रामभरोसे का चेहरा ऐसे हो गया जैसे वह अभी रो पड़ेगा।
“अबे निकालता है या मैं शुरू करूं अपना काम—।”
“नि....कालता हूं अर्जुन भैया—।”
अंदर-ही-अंदर उसने अर्जुन त्यागी को हजारों गालियों से नवाजा और पांच सौ का नोट निकालकर उसकी हथेली पर रख दिया।
“बोतल भी निकाल—।” नोट को अपनी पैंट की पिछली जेब के हवाले करते हुए गुर्राया अर्जुन त्यागी।
रामभरोसे गद्दी से उतरा और मिठाइयों वाली जाली के पीछे चला गया।
पीछे-पीछे अर्जुन त्यागी भी वहां पहुंच गया। पहले तो रामभरोसे का दिल किया कि वह उसे बाहर खड़ा होने को कहे—वह शायद ऐसा कह भी देता—मगर उसकी हिम्मत ने उसका साथ नहीं दिया। वह जानता था कि अगर उसने ऐसी-वैसी कोई बात कही तो अर्जुन त्यागी उसकी वहीं पर धुनाई कर देगा—हो सकता है हड्डी पसली भी तोड़ दे।
और धुनाई के दौरान राह चलते लोग भी इकट्ठे होंगे—फिर यह बात फैलते देर नहीं लगनी थी कि रामभरोसे मिठाइयों की आड़ में शराब बेचने का धंधा करता है—और उसके पश्चात् सीधा थाना, फिर जेल।
उसने अर्जुन त्यागी के सामने ही जाली के पीछे बनी एक अलमारी में से एक बोतल निकाली और अर्जुन त्यागी की तरफ बढ़ाते हुए बोला—
“इसे अंटी में लगा लो अर्जुन भैया—और आगे से जरा मेरा भी ख्याल रखा करना।”
अर्जुन त्यागी ने बोतल को अपनी पैंट की बैल्ट में फंसाया—शर्ट ऊपर की और रामभरोसे के कंधे पर धौल जमाते हुए बोला—
“अर्जुन त्यागी को खुश रखेगा तो तेरे काम में रुकावट नहीं आएगी—निर्भय होकर करते रहना दारू बेचने का धंधा।”
रामभरोसे बोला तो कुछ नहीं—बस चापलूसी वाले अंदाज में दांत निकाल लिए।
अर्जुन त्यागी रामभरोसे की दुकान से निकला और सीधा कालू के घर जा पहुंचा।
कालू—जो कि अर्जुन त्यागी के चार लड़कों के गैंग में उसके सबसे नजदीक माना जाता था। नाम की तरह कालू का रंग भी काला था—जिस्म गठीला मगर ठिगना—टक्कर मारने में कोई उसका सानी नहीं था। जिसको भी उसके सिर की टक्कर लगी—समझ लो, वह गया आध पौन घण्टे के लिए—ऊपर से नाक से खून भी बह निकलेगा।
अर्जुन त्यागी को देखते ही कालू चहक उठा—
“अरे आ....आ मेरे यार....कहां था सुबह से—दो चक्कर तेरे घर भी लगा आया हूं—।”
अर्जुन त्यागी ने मुस्कुराकर अपनी शर्ट ऊपर उठाई और बोतल निकाल ली।
बोतल देखते ही कालू होंठों पर जीभ फेरने लगा।
“इसका बंदोबस्त करने गया था—।” अर्जुन त्यागी बोतल को उसके पास फर्श पर रखकर उसके पहलू में बैठते हुए बोला।
कालू ने तुरन्त ही बोतल उठाई और उसका लेबल पढ़ने लगा।
“संतरे की है।” वह अर्जुन त्यागी से बोला।
“रामभरोसे से लाया हूं—साथ में यह....पांच सौ का नोट भी—।”
अर्जुन त्यागी जेब से नोट निकालकर उसे दिखाते हुए मुस्कुराया।
“अब तो सचमुच तेरी बड़ी धाक जम गई है यार....।”
अर्जुन त्यागी मुस्कुरा पड़ा—साथ ही गर्व से गर्दन अकड़ा ली उसने।
“गिलास लाऊं—?”
“तो क्या बोतल को ही मुंह लगाने का इरादा है?”
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