दहेज में रिवॉल्वर
“खबरदार!” मानो हिंसक पशु दहाड़ उठा।
दूसरी आवाज ने चेतावनी दी—“अगर कोई हिला तो गोलियों से भून दिया जाएगा।”
यात्रियों की तन्द्रा भंग हुई।
चलती बस में खलबली मच गई।
“नहीं...गाड़ी को रोकने की कोशिश मत कर, इसी स्पीड से चलता रह!” एक शख्स अपने हाथ में मौजूद रामपुरी चाकू की नोक ड्राइवर की गर्दन पर चुभाने के साथ गुर्राया—“अगर ब्रेक लगाने की चेष्टा की तो गर्दन अलग कर दूंगा।”
एक और चेतावनी गूंजी—“जो जहां है, बगैर हिले वहीं बैठा रहे!”
यात्री बौखला गए मगर यह बौखलाहट केवल तब तक रही जब तक कि समझ नहीं पाए कि मामला क्या है और मामला समझ में आते ही प्रत्येक यात्री के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं।
आतंकित हो उठे वे।
मानो एक साथ सबको सांप सूंघ गया।
चमचमाते चाकू ताने दो शख्स बस के दोनों दरवाजों पर तैनात थे—एक बस के अगले हिस्से में, एक पीछे, एक बीच में और एक ड्राइवर के सिर पर सवार था।
क्षण-भर के अंदर ड्राइवर पसीने से सराबोर हो गया।
बस को उसी गति से चलाये रखने के लिए विवश था वह।
केवल शाम के सात बजे थे—अंधकार पूरी तरह वातावरण पर हावी नहीं हुआ था—सड़क पर ट्रेफिक का आवागमन जारी था। परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे बस के बाहर मौजूद किसी व्यक्ति को इल्म होता कि यात्रियों से भरी वह चलती बस किसी मुसीबत में घिर गई है।
छः लुटेरों में से पांच के हाथ में चाकू थे, केवल एक के हाथ में रिवॉल्वर।
सभी ने चेहरों पर ढाटे बांध रखे थे।
केवल आंखें चमक रही थीं उनकी।
रिवॉल्वर वाला बस के बीच में खड़ा था।
जब उसने देख लिया कि प्रत्येक यात्री दहशतजदा हो चुका है तो अपनी आवाज को ज्यादा-से-ज्यादा खतरनाक बनाने की चेष्टा के साथ चीखा—“सब अपनी-अपनी जेबें खाली करके रुपया-पत्ता मेरे आदमियों को सौंप दें।”
बहुत से हाथ जेबों में पहुंच गये।
“माल निकाल हरामजादे, सुना नहीं गुरु ने क्या कहा?” बस के पिछले हिस्से में खड़े लुटेरे ने अपने नजदीक मौजूद उस यात्री से कहा जिसने अभी तक जेब में हाथ नहीं डाला था।
“म-मेरे पास कुछ नहीं है।” यात्री मिमियाया।
“झूठ बोलता है स्साले?”
“अ-आप खुद मेरी तलाशी...।”
मगर!
वाक्य पूरा न कर सका वह।
सिर पर ‘फड़ाक्’ से चाकू की मूठ टकराई।
हलक से चीख निकली और जख्म से गाढे़ खून की धारा फूट पड़ी।
यह हरकत लुटेरे ने बस यात्रियों को और ज्यादा आतंकित करने के लिए की थी और वह अपने उद्देश्य में कामयाब रहा—जो हाथ अभी हिले तक नहीं थे वे भी जेबों में रेंग गये।
रिवॉल्वर वाला गुर्राया—“मर्द अपनी घड़ियां और अंगूठियां उतार लें, औरतें गहने उतारकर मेरे आदमियों के हवाले कर दें—अगर नाक, कान से मेरे आदमियों को गहने नोंचने पड़े तो वे लहूलुहान हो जायेंगीं।”
दहशत कुछ और बढ़ गयी। महिलाओं की तो क्या कहें, सारे मर्द नामर्द बन चुके थे।
बस चलती रही।
नकद, घड़ियां और गहने लुटेरों के हाथ में पहुंचने लगे—पीछे वाला लुटेरा पिछले यात्रियों से छीन-झपट कर रहा था—आगे वाला अगले यात्रियों से छीन-झपट कर रहा था—बीच में खड़ा लुटेरा प्रत्येक यात्री पर निगाह रखे हुए था।
सुनयना के शरीर पर काफी गहने थे।
ससुराल के भी और पीहर के भी।
अभी दुल्हन ही तो थी वह—शादी हुए केवल बीस दिन गुजरे थे। बगल में उसका पति बैठा था।
पंकज!
शादी के बाद उन्होंने कश्मीर में हनीमून मनाया था—हनीमून के बाद वह पीहर चली गई और अब एक बार फिर पंकज उसे बाबुल के घर से विदा कराकर अपने घर ले जा रहा था।
“अरे वाह, मजा आ गया गुरु!” सुनयना के गहनों पर नजर पड़ते ही वह लुटेरा जोर से चीख पड़ा जो इस तरफ के यात्रियों से माल छीन-झपट रहा था—“इस बस में तो कारूं का खजाना भी सफर कर रहा है।”
“क्या बक रहा है?” रिवॉल्वर वाला दहाड़ा।
“बक नहीं रहा गुरु, देखो...बहुत माल है।”
“टाइम बरबाद मत कर।” रिवॉल्वर वाला जल्दी से बोला—“सब उतरवा ले।”
लुटेरे ने हाथ सुनयना के वक्षःस्थल की तरफ बढ़ाया।
“ठ-ठहरो!” एकाएक पंकज चीख पड़ा—“सुनयना को हाथ मत लगाना, हम गहने खुद दे रहे हैं।”
लुटेरा अत्यन्त भद्दे अंदाज में हंसा, बोला—“ओह नई-नई शादी हुई है न—समझता है कि हमारे छूने से मैली हो जाएगी, शादी से पहले भले ही हजार चूहे खा चुकी हो मगर अब तो हज चल ही रहा है।”
रहा नहीं गया पंकज पर बिफर पड़ा वह—“ज-जुबान सम्भालकर बात कर कमीने।”
फड़ाक!
चाकू की मूंठ पंकज के सिर से टकराई।
हलक से चीख और जख्म से खून उबल पड़ा।
“न-नहीं-नहीं!” सुनयना चीख पड़ी—“इन्हें मत मारो, म-मैं सारे गहने दे रही हूं।”
“गहने तो हम ले ही लेंगे।” लुटेरा पंकज का गिरहबान पकड़कर उसे झंझोड़ता हुआ गुर्राया—“पहले इस हरामी के पिल्ले को यह समझा दूं कि मुझे कमीना कहने का अंजाम क्या होता है।”
“छ-छोड़ दो...छोड़ दो!” सुनयना हस्तक्षेप करती गिड़गिड़ाई—“इन्हें कुछ मत कहो, प्लीज माफ कर दो इन्हें। अब ये किसी को कुछ नहीं कहेंगे।”
“कैसे माफ कर दूं जानेमन—ऐसे हम किसी को माफ नहीं करते, ये ले!”
कहने के साथ उसने घुप्प से चाकू का पूरा फल पंकज के पेट में घुसेड़ दिया।
खून का फव्वारा छूट पड़ा, हलक से चीख निकली और उससे कहीं ज्यादा जोर से चीख पड़ी सुनयना।
“न-नहीं...नहीं...मैं तेरा मुंह नोच लूंगी।” एक पल पूर्व तक गिड़गिड़ा रही सुनयना पति पर चाकू का वार हुआ देखते ही मानो जख्मी शेरनी में बदल गयी, हर खौफ से मुक्त होकर लुटेरे पर झपट पड़ी वह।
तभी!
धांय!
रिवॉल्वर गर्जा।
पलक झपकते ही गोली सुनयना की दायीं कनपटी में घुसकर बाईं कनपटी से निकल गयी।
सुनयना कटे वृक्ष-सी गिरी।
पंकज हलक फाड़कर दहाड़ा—“नहीं...नहीं...।’’
अपने नजदीक मौजूद लुटेरे पर झपट पड़ना चाहा उसने परन्तु आंखों के समक्ष अंधेरा छाता चला गया, लाख प्रयत्न के बावजूद खुद को बेहोश होने से न रोक सका वह और धड़ाम से जा गिरा।
आनन-फानन में हुए इस हत्याकांड ने केवल यात्रियों को ही नहीं बल्कि लुटेरों को भी किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था। बस के पिछले दरवाजे के नजदीक तैनात लुटेरा चीख पड़ा—“ये क्या किया गुरु, तुमने खुद ही तो हमें बार-बार समझाया था कि लूट की इस वारदात में यात्रियों को आतंकित करने के लिए जख्मी भले ही जितनों को करना पड़े मगर जान से किसी को नहीं मारना है...और अब तुमने खुद ही उसे...!”
“बकवास बंद कर!” रिवॉल्वर वाला दांत भींचकर दहाड़ा—“बेवकूफी उस साले ने दिखाई है, एक दुल्हन के सामने उसके पति के पेट में चाकू घुसेड़ने की जरूरत ही क्या थी और अगर इन परिस्थितियों में मैं गोली न चलाता तो न केवल हमारी ये लूट असफल हो जाती बल्कि हम सब पकड़े भी जाते।”
पंकज को जख्मी करने वाले ने कहा—“म-मैं तो आतंक फैला रहा था गुरु।”
“अच्छा, अब छोड़ो!” ड्राइवर के सिर पर सवार लुटेरा बोला—“मैं गाड़ी रुकवाता हूं।”
रिवॉल्वर वाले ने कहा—“उसके गहने तो उतार ले।”
पंकज को जख्मी करने वाला सुनयना के तन पर मौजूद गहनों पर इस तरह झपटा जैसे बाज कबूतर पर झपटता है—लुटेरे के आदेश पर ड्राइवर ने ब्रेक लगाने के साथ बस सड़क के एक किनारे की तरफ की—उस वक्त बस के आस-पास कोई अन्य वाहन न था।
बस के रुकते-रुकते लुटेरे जिनसे जो झपट सकते थे, झपट लिया। अब वे भी घबराये हुए नजर आ रहे थे।
अपनी आंखों से एक हत्या होती देखने के बाद लुटेरों का विरोध करने का साहस किसी में न रहा था—इसमें शक नहीं कि हत्या होने के बाद लुटेरे भी थोड़ा हड़बड़ा गये थे मगर बस के रुकने और लुटेरों के उसमें से कूद-कूदकर ईख के खेत में गुम हो जाने तक किसी यात्री के मुंह से बोल तो क्या, सांस तक न निकली।
लुटेरों के गुम होते ही एक ‘जीदार’ चीखा—“बस को थाने ले चलो।”
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