चौथा खम्भा
सुनील प्रभाकर
धमाका बहुत जोरदार था।
लेकिन यह धमाका बम और गोलियों का नहीं बल्कि एक्सीडेण्ट का था और एक्सीडेण्ट भी ऐसा कि देखने वालों के मुंह से चीखें भी निकलीं, वे अचम्भित भी हुए—फिर चौंके और उस ओर भाग लिये जहां एक्सीडेण्ट हुआ था। एक्सीडेण्ट के कारण पहले तो सन्नाटा छा गया था माहौल में, फिर शोर मच गया 'क्या हुआ…क्या हुआ' की आवाजें चारों ओर से उभरने लगीं।
एक्सीडेण्ट वास्तव में खतरनाक था।
हालांकि वो चहल-पहल वाली सड़क थी, फलस्वरूप वाहनों का आवागमन कोई तेज रफ्तार वाला नहीं था—मगर एक्सीडेण्ट फिर भी हो ही गया था। जिन लोगों ने भी हादसे को देखा था, उनको बस इतना ही नजर आया था कि एक हीरो होन्डा मोटरसाइकिल, मोड़ से टर्न लेकर आती काले रंग की एम्बेसडर से टकराई थी। एम्बेसडर के ब्रेक लगने से कार के पहिये घिसटने के कारण जोरदार आवाज हुई थी। लोगों ने हीरो होन्डा सहित उस पर सवार दो शरीरों को हवा में उड़ते और इधर-उधर सड़क पर गिरते देखा था। मोटर साइकिल भी कई मीटर तक घिसटती नजर आयी थी।
देखते-देखते उस चलती सड़क पर शोर उभरा था और घटनास्थल पर भीड़ लगने लगी थी।
"माई गॉड!"
"कैसा एक्सीडेण्ट हुआ है?"
"दोनों का कचूमर निकला गया होगा।"
"बहुत चोट आई होगी।"
"बचना मुश्किल है।"
"हाथ-पैर टूट गये होंगे।"
जितने मुंह उतनी बातें।
आस-पास जो दुकानें थीं, उनके दुकानदार और किसी-किसी दुकान के नौकर भी दौड़े थे। कुछ दुकानों पर खड़े होकर देखने की कोशिश कर रहे थे। रास्ता चलने वाले भी दौड़े थे। पलक झपकते भीड़ लग गयी थी और रास्ता जाम हो गया था।
"पुलिस को बुलाओ।"
"थाने फोन करो।"
"अरे यार, अस्पताल फोन करके एम्बुलेंस बुलाओ।"
"ऐसे तो देर हो जायेगी। दोनों घायल मर जायेंगे। इनको अस्पताल ले चलो।"
शोर, चिल्लाने के स्वर माहौल में फैल रहे थे। जितने मुंह, उतनी बातें और राय। एक अजीब-सी अफरा-तफरी।
उसी समय पुलिस सायरन का स्वर सुनायी दिया और एक जीप आकर घटनास्थल पर रुकी।
पुलिस का आना जैसे सभी के लिये राहत का बायस बन गया।
जीप से एक इन्सपेक्टर, एक सब-इन्सपेक्टर, हेडकांस्टेबल और कई सिपाही उतरे तथा भीड़ में घुस गये। इन्सपेक्टर ने दोनों घायलों को देखा तो हड़बड़ाया। दोनों घायल बेहोश थे। खून सड़क पर फैला हुआ था। इन्सपेक्टर की वर्दी पर जो नाम की प्लेट लगी थी उस पर लिखा था जीवराज छबीला। वह लम्बा-चौड़ा, कठोर चेहरे वाला शख्स था। उसकी छोटी-छोटी, चिमधी आंखों में धूर्तता और मक्कारी की चमक स्पष्ट थी। उसने दुर्घटना के सम्बन्ध में लोगों से सरसरी तौर पर जानकारी ली और एक टेम्पो रुकवाकर दोनों बेहोश घायलों को अस्पताल भिजवा दिया।
एम्बेसडर चालक कार छोड़कर गायब हो गया था। दुर्घटनाग्रस्त मोटर साइकिल एक ओर पड़ी थी।
पुलिस के आ जाने से भीड़ भी छंट गयी तथा जाम ट्रैफिक का आवागमन फिर से शुरू हो गया। इन्सपेक्टर जीवराज छबीले ने एम्बेसडर और मोटर साइकिल दीवान के जरिये थाने भिजवा दी और स्वयं भी रवाना हो गया।
इन्सपेक्टर जीवराज ने वही किया जो पुलिस रुटीन था। उसकी नजर में सीधी-सीधी मार्ग दुर्घटना हुई थी। ऐसी मार्ग दुर्घटना शहर में रोजाना हुआ करती थीं जिनमें कोई मरता था, कोई घायल होता था। दुर्घटना करने वाले कभी पकड़े जाते थे, कभी भाग जाते थे। दुर्घटना के सम्बन्ध में उसने सरसरी तौर पर पूछताछ कर ली थी। आस-पास के दो-चार दुकानदारों के नाम लिख लिये थे जो चश्मदीद गवाह थे। यह सब खानापूर्ति के लिये था।
उसे नहीं पता था कि जिसे वह साधारण मार्ग दुर्घटना समझ रहा है—वास्तव में कितनी विस्फोटक है और भविष्य में शहर में हड़कम्प मचाकर रख देने वाली है।
जीप में सवार होकर वह घटनास्थल से रवाना हुआ तो उसको नहीं पता चला कि उसकी रुटीन कार्यवाही से वहां मौजूद एक व्यक्ति, जो कि कार चालक था, उसके चेहरे पर सन्तुष्टि के भाव थे।
¶¶
सतीश काना उन लोगों में से एक था जिसका जीवन दूसरों के बल पर चलता था। यानी वह जेबकतरा, उठाईगिरा था और अपने धन्धे का माहिर था। जिस समय एक्सीडेण्ट हुआ, वह एक खोखे वाले के पास खड़ा चाय सुड़क रहा था।
मोटर साइकिल को काली एम्बेसडर से टकराकर हवा में उछलते, साथ ही दोनों सवारों को कलाबाजी खाते तथा सड़क पर गिरते देखा था। फिर शोर होना, जाम लगना और लोगों की भीड़ एकत्र होना—सब पलक झपकते हो गया था।
सतीश काना ने जल्दी से चाय समाप्त की और गिलास को तिपाई पर रखा तथा खोखे वाले से बोला—"मैं अभी आया काका।"
"अरे तू वहां क्या करने जा रहा है?" खोखे वाला जोर से बोला।
"जरा देख आऊं काका।"
"देखकर क्या करेगा? मातम या सियापा?"
सतीश काना कुटिल हंसी हंसा।
"समझा करो काका।"
"तू साले ऐसे समय में भी अपनी हरकत से बाज नहीं आयेगा।" अधेड़ उम्र का खोखे वाला, जिसका नाम गणेश पारचा था, तिरस्कार से बोला।
"क्या बात करते हो काका? घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या? फिर ऐसे मौके बार-बार कहां आते हैं?" उसने कहा और पलटकर घटनास्थल की ओर बढ़ गया।
"साला टुकड़ाखोर।" गणेश पारचा बड़बड़ाया—"अपने हरामीपन से बाज नहीं आयेगा।"
सतीश काना तब तक भीड़ में शामिल होकर गायब हो चुका था। गणेश पारचा ने गहरी सांस छोड़ते हुये गरम पानी चाय के बर्तन में डालकर उसे भट्टी पर चढ़ा दिया।
एक्सीडेण्ट होते उसने भी देखा था।
उसका मन भी हो रहा था जाकर देखने को लेकिन जा नहीं सकता था। चला जाता तो दुकान पर बैठने वाला कोई नहीं था। उसने भीड़ की ओर देखा और बीड़ी सुलगाकर उसके कश लेने लगा।
उसने दुर्घटना की भयंकरता देखी थी।
उसे नहीं लगता था कि मोटर साइकिल सवारों में से कोई बच पायेगा। जाने कौन होंगे बेचारे? गणेश पारचा ने सोचा था, घर वालों को पता भी नहीं होगा कि उनके साथ क्या हुआ है।
¶¶
उसने क्वायन बॉक्स में सिक्का डाला, फिर जल्दी से बोला—"मैं बोल रहा हूं बॉस।"
"क्या रहा?"
"दोनों को ठोंक दिया है।"
"फिनिश?"
"पता नहीं—वैसे बचना मुमकिन नहीं है।"
"तुम सन्देह भरे लफ्ज का इस्तेमाल कर रहे हो। यानी तुमको यह भरोसा नहीं है कि दोनों खत्म हो गये होंगे?" दूसरी ओर से सर्द स्वर में कहा गया।
बोलने वाला सकपकाया—"ऐसा नहीं है।"
"फिर कैसा है?" इस बार स्वर में गुर्राहट थी।
"जैसा एक्सीडेण्ट हुआ, उसको देखते हुए उनका बचना सम्भव नहीं है।"
"फिर वही संदिग्ध शब्द।"
"ज...जी।" उससे कुछ कहते नहीं बना।
"पुलिस आयी?"
“बस अभी आयी है।"
"तब फिर एक काम करो।"
"जी बोलिये...।"
"पता लगाओ कि दोनों खत्म हो गये कि नहीं। पुलिस उनको अस्पताल ले जाये शायद। तुमको मालूम होना चाहिये कि अस्पताल में उनकी क्या हालत है। मर जाते हैं तो ठीक है। अगर बच जाते हैं तो हमारे लिये खतरा हैं। उनको किसी भी कीमत पर बचना नहीं चाहिए। किसी भी कीमत पर नहीं। उनके बचने का मतलब है हम सभी का सर्वनाश।"
"जी...।"
तभी 'खट' की आवाज आयी।
उसने जल्दी से दूसरा सिक्का छेद में डाला।
"कुछ समझा कि नहीं?"
"समझा...।"
"यह भी पता लगाना है कि उन दोनों के पास से क्या बरामद हुआ है। दोनों के पास फिल्म होनी चाहिये।"
"जी...।"
"सुनो—मैं सुलतान को भेज रहा हूं।"
"सुलतान!"
उसका कलेजा लरज गया सुलतान का नाम सुनकर।
"हैलो...हैलो...।"
"यस!"
"तू कहां से बोल रहा है?"
"चौक से।"
"सुन, वहीं रहना। सुलतान वहीं पहुंचेगा। उसके साथ सहयोग करना है तुझे।"
उसके शरीर में सर्द लहर दौड़ गयी।
सुलतान का मतलब था मौत का दूसरा नाम। सुलतान को मैदान में उतारने का मतलब था हत्याएं...खून-खराबा...हाहाकार। यानी जिन लोगों को उसने कार से ठोका था, जाहिर था कि बॉस के लिये खतरा बन गये थे—ऐसा खतरा, जिनका मरना जरूरी था। निश्चित रूप से दोनों ने कुछ ऐसा किया था।
"तू समझ गया कि नहीं?"
"समझ गया।"
"वहीं नजर रख। कोई बात, कोई चीज, कोई चर्चा तुझसे छूटनी नहीं चाहिये। नजर को पैनी रखना और कानों को खुला रखना।"
"यस।"
"इन्तजार कर, सुलतान को भेजता हूं।"
फोन कट गया।
उसने रिसीवर लटकाया और बूथ से बाहर आ गया।
¶¶
उसका नाम राघव परदेसी था।
सांवला रंग, लंबूतरा चेहरा, इकहरा शरीर—लेकिन रस्सी की तरह ऐंठा हुआ। वह पैंट और बुशर्ट पहनता था। यह उसकी स्थायी पोशाक थी। उससे यदि पूछा जाता कि उसके नाम के साथ परदेसी क्यों लगा है तो शायद वह नहीं बता सकता था। क्योंकि बचपन से ही राघव परदेसी कहकर बुलाया जाता रहा था। सो उसके जेहन में आत्मसात हो गया था यह नाम।
एक बार मां से उसने पूछा भी था तो मां ने उसकी ओर विचित्र नजरों से देखा था। उसने मां के चेहरे पर पीड़ा के भाव देखे थे। वह कुछ देर के लिये गुमसुम हो गयी थी। फिर सम्भलकर बोली थी—"तेरे कदम घर में रुकते जो नहीं हैं। पता नहीं कहां मारा-मारा घूमता है। मेरे लिये तू परदेसी तो है ही। जो घर में न रुके उसे परदेसी न कहूं तो क्या कहूं?"
छोटा होने के कारण तब वो मां के कथन को नहीं समझ पाया था—लेकिन जब समझ पाया था तो मां नहीं रही थी और लोगों से उसे परदेसी का पता चल गया था। बाप को उसने बचपन से नहीं देखा था। उसने तो यही समझा था कि पिता जीवित ही नहीं है। मां के मरने के बाद मालूम हुआ था कि उसका पिता एक ऐसा शख्स था जो बस्ती में एक दिन घायल अवस्था में आया था। मां ने जाने किस भावना के तहत उसको घर में जगह दी थी, उसकी सेवा की थी। हालांकि उसके नाना यानी मां के पिता ने मना किया था मगर मां नहीं मानी थी।
वो घायल शख्स किसी अच्छे घर का मालूम होता था। चेहरे-मोहरे, बातचीत और व्यवहार से पढ़ा-लिखा तथा समझदार लगता था। फिर ठीक होकर चला गया था। अलबत्ता उसने जाते समय बहुत कृतज्ञता प्रकट की थी और बीच-बीच में आने का वायदा भी किया था। उसके नाना को यद्यपि उस शख्स पर भरोसा नहीं हुआ था मगर मां को था। उस व्यक्ति ने अपना नाम सदाशिव बताया था।
और फिर वही हुआ था जिसकी आशंका उसके नाना को थी। सदाशिव नामक वो शख्स कभी पलटकर नहीं आया था। उसकी मां गर्भवती हो गयी थी जो उस आदमी की देन थी।
नाना ने जब जाना तो वो हार्ट अटैक से चल बसे थे।
मां ने तब अकेले ही जमाने की जाने कितनी रुसवाई, कितनी बातें, कितने ताने सहे थे तथा दृढ़तापूर्वक सबका सामना करते हुए उसका पालन-पोषण किया था।
राघव परदेसी ने बचपन से ही लोगों के व्यंग्य सुने थे, तिरस्कार सहन किया था, दुत्कारों को झेला था। मां को टी.बी. हो गयी थी जो इलाज के अभाव में बढ़ती गयी थी और फिर एक दिन वो चल बसी थी। राघव को अकेली जिन्दगी बेहद तल्ख, बेहद सूनी, बेहद उदास लगने लगी थी। सभी की उपेक्षा और खराब व्यवहार ने उसको सभी का विरोधी तो बना ही दिया था—उसके कदमों को पूरी तरह गलत रास्ते की ओर मोड़ दिया था। देखते-देखते वह एक खतरनाक शख्स के रूप में ढलता चला गया था। फिर एक समय वो भी आया था कि बस्ती वाले उससे डरने लगे थे—भय खाने लगे थे क्योंकि उसने कइयों की जमकर धुनाई कर डाली थी।
सभी को मालूम हो गया था कि राघव परदेसी एक खतरनाक शख्स बन चुका है। अलवत्ता राघव के साथ परदेसी शब्द स्थायी रूप से उसके नाम में जुड़ गया था। राघव ने उसे स्वीकार कर लिया था।
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