बाजीगर
दिनेश ठाकुर
“शादी!” सेठ दीनदयाल गुर्राया——“तुम मेरी बेटी से शादी करना चाहते हो?”
प्रत्युत्तर में उनके सामने खड़ा चौबीस-पच्चीस वर्षीय गोरे रंग वाला शंकर पुरी दिलेरी से कह उठा——“जी हां, बस आपके आशीर्वाद की जरूरत है।”
“तुमने बहुत ऊंचा सपना देख लिया है शंकर!”
“ये सपना नहीं, हकीकत है सेठ जी!”
एकाएक दीनदयाल के होठों से नफरत का सैलाब फूट निकला——“मेरे सामने इस तरह सीना तानकर मेरी इकलौती बेटी का हाथ मांगने से पहले कम-से-कम तुम्हें अपनी औकात तो देख लेनी चाहिए थी।”
किंतु क्या मजाल जो शंकर नाम के उस युवक के चेहरे पर मामूली शिकन भी उभरी हो! वो पूर्ववत् बेखौफ स्वर में बोला——“मैं अपनी औकात देखकर ही आपके पास आया हूं।”
“अगर तुमने अपनी औकात देख और समझ ली होती तो तुम मेरे सामने खड़े होकर ये बात कहने की हिम्मत नहीं करते कि तुमने मेरी बेटी से प्यार करते हो और उससे शादी करना चाहते हो।”
“मगर प्यार तो आपकी बेटी ने भी किया है सेठ जी! और उसने मुझे किसी काबिल तो समझा ही होगा। दूसरे, अगर आप खुद भी अपनी आंखों पर चढ़ा अहंकार का चश्मा उतारकर एक बार गौर से मुझे देखें तो आपको महसूस हो जाएगा कि मुझमें ऐसी कोई कमी नहीं है, जो मैं आपका दामाद न बन सकूं।”
“बको मत!” सेठ दीनदयाल किसी भेड़िए की नकल करता हुआ गुर्राया——“सच्चाई ये है कि तुम मेरी सेफ बनाने वाली फैक्ट्री के एक बेहतरीन मैकेनिक तो हो सकते हो, लेकिन मेरे दामाद बनने के काबिल नहीं हो सकते।”
“आप गलत कह रहे हैं सेठ जी!” शंकर मुस्कुराया——“एक बार मुझे अपना दामाद बनाकर तो देखिए, फिर आपको खुद मालूम हो जाएगा कि मैं आपका कितना काबिल दामाद साबित होता हूं।”
“शटअप!”
दीनदयाल का चेहरा खुरदुरा हो उठा——“फुटपाथ पर रहने वालों को महलों के ख्वाब नहीं देखने चाहिए। मत भूलो कि धरती कितनी भी अपनी बांह क्यों न पसारे, मगर वो आसमान को नहीं छू सकती। इसलिए सेठ दीनदयाल की बेटी से शादी करने का ख्याल अपने दिमाग की जड़ों से खुरच डालो।”
“हरगिज़ नहीं।” वो मुकम्मल दृढ़ता के साथ बोला——“मैं माधुरी से प्यार करता हूं और उसी से शादी करूंगा सेठ जी!”
“बको मत! इतना तो तुम्हें भी मालूम होगा कि मखमल में टाट का पैबंद नहीं लगा करता और तुम तो मेरी बेटी के पांव की धूल भी नहीं हो।”
“मोहब्बत में तो पांव की धूल भी माथे चढ़ा ली जाती है सेठ जी!” शंकर ने इत्मीनान से कहा——“और आपकी बेटी माधुरी मुझसे मोहब्बत करती है।”
“वो नादान है। हमारी बातों के जाल में फंसकर जज्बातों के सैलाब में वो अच्छे बुरे के बीच फर्क करने की तमीज भूल बैठी है।”
“माधुरी कोई दूध पीती बच्ची नहीं है, जो मेरी बातों में आकर जज्बाती हो गई। वो बालिग है और अपना भला-बुरा अच्छी तरह समझती है। वो मुझे कितना चाहती है, इस बारे में आप माधुरी को यहां बुलाकर पूछ सकते हैं।”
“मैं इसकी जरूरत नहीं समझता। वो मेरी बेटी है। मैं उसकी रग-रग से वाकिफ हूं। मैं जैसा चाहूंगा... वो वैसा ही करेगी।” सेठ दीनदयाल का स्वर बेहद सख्त हो उठा——“फिलहाल तुम अपने प्यार का बहुत राग अलाप चुके हो। अब तुम्हारी खैरियत इसी में है कि यहां से दफा हो जाओ...और आगे से मेरी बेटी से मिलने की कोशिश मत करना, वरना अंजाम बहुत बुरा होगा।”
“आप मुझे धमकी दे रहे हैं सेठ जी! लेकिन याद रखिए, मैं आपकी इन गीदड़ भभकियों से डरने वाला नहीं हूं।”
“तुम डरोगे तो उस दिन जब मेरा कहर तुम पर टूटेगा और उस वक्त तुम्हें इस शहर में सिर छुपाने की जगह तक नहीं मिलेगी। बेहतर है कि समय रहते अपने इरादे को बदल दो, वरना तुम्हारी लाश किसी गंदे गटर में पड़ी सड़ रही होगी और लोग ये तक भूल जाएंगे कि शंकर नाम का कोई शख्स कभी इस दुनिया में पैदा भी हुआ था।”
पलक झपकते ही शंकर का चेहरा भभककर कनपटियों तक सुर्ख हो उठा था। आंखें मानो अंगारे उगलने लगी थीं और समूचा जिस्म गुस्से की अधिकता से अंधड़ में फंसे किसी इकलौते पत्ते की तरह कांपकर रह गया था। बड़ी कठिनाई से वो अपने गुस्से पर काबू पा सका था, फिर बोला——“मैं आपकी नौकरी जरूर करता हूं, लेकिन आपका गुलाम नहीं हूं। आप भले ही कितने दौलतमंद सही, किंतु फिर भी मेरा बाल तक बांका नहीं कर सकते...और अगर मैं अपनी पर आ जाऊं, तो आपका ये आलीशान महल रेत का घरौंदा बनाकर दिखा सकता हूं सेठ दीनदयाल जी!”
“खामोश!” सेठ दीनदयाल एक झटके से सोफा छोड़ता हुआ समुचित ताकत के साथ चीखा——“दफा हो जाओ यहां से।”
“चीखो मत सेठ जी! चीखना मुझे भी आता है, अगर मैंने चीखना शुरू कर दिया तो आपकी कोठी की एक-एक ईंट झनझना उठेगी। बेहतर है कि सुर नीचा करके बात करिए।”
दीनदयाल के होठों से शब्द नहीं मानो आग बरसी——“अपनी जुबान को लगाम दो शंकर! अपने मालिक से बात करने का तरीका सीखो। अगर अब तुमने मेरी शान के खिलाफ एक शब्द भी कहा तो मैं तुम्हारे हलक में हाथ डालकर तुम्हारी जुबान खींच लूंगा। बेहतर यही है कि अपनी मनहूस सूरत मेरे सामने से हटा लो और आज के बाद मेरी कोठी की तरफ रुख भी मत करना।”
“मैं जा तो रहा हूं सेठ जी, लेकिन जाने से पहले मेरी एक बात अच्छी तरह से कान खोलकर सुन लो, अगर आपने माधुरी की शादी मुझसे नहीं की तो बाद में आपको बहुत पछताना पड़ेगा।” कहने के साथ ही शंकर पलटकर ड्राइंग रूम से बाहर निकल गया।
लॉन में उसके कई साथी पहले से ही मौजूद थे।
शंकर उनकी तरफ बढ़ा।
शंकर इस दुनिया में अकेला था। उसे अपना कहने वाला कोई नहीं था। जब उसने होश संभाला था, तो खुद को फुटपाथ पर पाया था। काफी दिनों तक दादागिरी करने के बाद एक दिन अचानक उसके सिर पर खून-पसीने की रोटी खाने का भूत सवार हुआ और उसने किसी तरह दीनदयाल सेठ लिमिटेड में मैकेनिक की नौकरी हासिल कर ली थी। वो दो हजार रुपये मासिक वेतन पाता था और दिल्ली महानगर में अपने चार साथियों के साथ वजीरपुर जे०जे० कॉलोनी के एक छोटे से कमरे में रह रहा था, जिसकी छत अक्सर बरसात में आंसू बहाया करती थी। उसके वे दोस्त उसके सुख-दुख के साथी थे।
शंकर अपने साथियों के समीप पहुंचकर ठिठका।
“क्या हुआ शंकर?” एक साथी ने उत्सुकता भरे स्वर में पूछा।
“होना क्या है...!” शंकर ठंडी सांस लेकर बोला——“वही हुआ जिसका अंदाजा मुझे पहले से था। सेठ ने फिल्मी स्टाइल में मुझे मेरी औकात समझाकर बैरंग वापस भेज दिया।”
“यानी वो अपनी लड़की की शादी तुमसे करने के लिए तैयार नहीं है।”
“जाहिर है।”
“दूसरे ने पूछा——“तो अब तुम क्या करोगे?”
“वही जो मजनूं ने लैला के लिए किया था।”
चारों आश्चर्यचकित से मुंह फाड़े शंकर की तरफ देखते रह गए थे।
फिर उनमें से एक ने पूछा——“हमें भी तो पता चले कि मजनूं ने लैला के लिए क्या किया था?”
“बगावत।”
चारों के होठों से एक साथ निकला——“ब... बगावत?”
“हां। मैं अपना प्यार हासिल करने के लिए सेठ दीनदयाल की कोठी के सामने भूख-हड़ताल करूंगा।”
“क... कमाल है!” तीसरा बोल उठा——“आज तक तो हमने नेताओं और डॉक्टरों को ही भूख-हड़ताल करते देखा है, मगर तुम पहले प्रेमी हो जो अपने प्यार के लिए भूख-हड़ताल करोगे।”
“यही तो कमाल होगा दोस्तों! और देखना...मेरी भूख-हड़ताल कोई-न-कोई रंग जरूर लाएगी। मैं सेठ दीनदयाल की सारी हेकड़ी भुला दूंगा। आखिर उसने मुझे समझा क्या है।”
“लेकिन अगर भूख-हड़ताल के बाद भी सेठ दिनदयाल ने तुम्हारी मांग स्वीकार नहीं की...?”
“अरे वो तो क्या, उसके फरिश्ते भी मेरी मांग स्वीकार करेंगे।”
“तो फिर कब से भूख-हड़ताल करने का इरादा है मजनूं साहब?” उनमें से एक चुटकी लेता हुआ बोला।
“पहले तो तुम लोग ये बताओ, मेरा साथ दोगे?”
शंकर के चारों दोस्त हवा में हाथ उठाकर लगभग एक स्वर में कह उठे——“तुम भूख-हड़ताल करो शंकर! हम तुम्हारे साथ हैं।”
“तो फिर कल सुबह से सेठ दीनदयाल की कोठी के सामने भूख-हड़ताल शुरू।”
शंकर ने कहा——“अब यहां से खिसक चलो। हमें अपनी तैयारी भी करनी है।”
अगले पल!
पांचों दोस्त एक-दूसरे के हाथ-में-हाथ डाले कोठी के मेन गेट की तरफ बढ़ते चले गए, जहां एक बावर्दी दरबान मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी को अंजाम दे रहा था।
¶¶
उस एयरकंडीशन्ड कमरे के बीचों-बीच मौजूद अर्धचंद्राकार मेज के पीछे उपस्थित रिवाल्विंग चेयर पर एक पैंतालीस साल का पहाड़-सा दिखने वाला व्यक्ति बैठा था।
उसका रंग ऐसा था जिसे देखकर शायद स्याही को भी शर्म आ जाए। सिर के बाल बेहद छोटे थे। चेहरे पर तोते जैसी नाक थी। होठ भद्दे और मोटे थे। आंखें गोल थीं, जिनमें हर क्षण सुर्खी समाई रहती थी। वो अपने जिस्म पर आसमानी रंग का महंगा सूट पहने था। इस शख्स का नाम था...मुस्तफा।
एकाएक मेज पर रखे फोन की घंटी बज उठी।
मुस्तफा ने बिना किसी हड़बड़ाहट के इत्मीनान से रिसीवर उठाकर कान से चिपकाने के बाद माउथपीस में कहा——“स्पीकिंग।”
“मैं अनवर बोल रहा हूं बॉस!” लाइन पर धीमा-सा स्वर उभरा।
मुस्तफा की आंखों में अजीब-सी चमक उभरती चली गई। वो एक झटके से कुर्सी पर सीधा होता हुआ बोला——“क्या खबर है अनवर?”
“मैं पिछले दो दिनों से बराबर धर्मसिंह की निगरानी कर रहा हूं बॉस! मगर इन दो दिनों में उसका एक ही रूटीन है। वो सुबह से शाम चार बजे तक होटल के कमरे में पड़ा रहता है। चार बजे होटल से निकलकर कनॉट प्लेस की एक बार में छककर व्हिस्की पीता है और रात दस बजे होटल के कमरे में आकर सो जाता है।”
“रामायण मत सुना अनवर! मुझे ये बता कि माल का क्या हुआ?”
“धर्मसिंह को अभी तक माल डिलीवर नहीं किया गया है...और उसकी हालत देखकर मुझे तो ऐसा लगता है जैसे उसे माल की परवाह भी नहीं है।” अनवर ने जवाब दिया।
मुस्तफा का स्वर खुरदुरा हो उठा——“लगता है कि तुम्हारे दिमाग में अक्ल का खाना नहीं है अनवर, अगर उसे माल की परवाह नहीं होती तो वो मुंबई से दिल्ली क्या झक मारने गया है? देर-सवेर उस तक माल पहुंचना ही है। वो बात अलग है कि तुम्हें इस बात की भनक तक न लगे।”
“ऐसा भला कैसे हो सकता है?”
“तुम शायद धर्मसिंह को नहीं जानते। वो निहायत चुस्त एवं चलाक किस्म का इंसान हैं। वो कानून की नाक के नीचे जुर्म करता है और कानून को भनक तक नहीं लगती।” मुस्तफा ने कहा——“उसने कई बार हमारी आंखों के सामने हमें लाखों का नुकसान पहुंचाया है। उस वक्त तो हमें इस बात का जरा भी इल्म नहीं हुआ। हमें तो बाद में इस बात का पता चला कि धर्मसिंह हमें लाखों का चूना लगा गया है। वो तो इस किस्म का इंसान है कि सामने वाले की आंखों से काजल चुरा ले और पता भी न चले।”
“मेरे होते हुए वो ऐसा नहीं कर सकेगा। मैं उसकी एक-एक एक्टिविटी पर नजर रखे हुए हूं। मुझे उसी सेकंड इस बात का पता चल जाएगा, जब वो डिलीवरी लेगा।”
“मुझे तुम्हारी काबिलियत पर शक नहीं है। लेकिन धर्मसिंह तुम्हारी उम्मीद से कहीं ज्यादा चालाक है और ये मत भूलो कि उससे बदला लेने का हमारे पास सिर्फ एक ही सुनहरा मौका है, अगर इस बार हम अपने मकसद में कामयाब हो गए तो धर्मसिंह की रीढ़ की हड्डी टूट जाएगी। खून के आंसू रोता फिरेगा वो।”
“अगर आप कहे तो मैं धर्मसिंह को ऊपर का रास्ता दिखा दूं? न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।”
“लगता है, तुम पागल हो गए हो, जो इस तरह की बेसिर-पैर की बातें कर रहे हो। मैं आज तक धर्मसिंह पर हाथ नहीं डाल सका, तुम तो किस खेत की मूली हो भला! ऐसी गलती भूलकर भी मत करना। तुम उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। उल्टे वो तुम्हें ऐसी भयानक मौत देगा कि तुम्हारी लाश भी ढूंढे नहीं मिलेगी।”
एक पल के लिए लाइन पर सन्नाटा छा गया।
फिर दूसरी तरफ से भयानक स्वर उभरा——“अब मुझे करना क्या है बॉस?”
“तुम धर्मसिंह के पीछे साए की तरह लगे रहो। वो माल की डिलीवरी लेने के बाद फौरन मुंबई के लिए रवाना होगा। तुम्हें मुझे ये खबर देनी है कि वो कौन-सी ट्रेन से पहुंच रहा है, उसकी बोगी और सीट का नंबर क्या है...।”
“ओ०के० बॉस!”
“सिर्फ ओ०के० कह देने से काम नहीं चलेगा। तुम्हें आंखें भी खुली रखनी होंगी। न जाने किस पल वो हवा के झोंके की तरह गायब हो जाए।”
“आप फिक्र न करें बॉस!”
अगले पल मुस्तफा ने रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया। साथ ही उसकी आंखें सोचने वाले अंदाज में सिकुड़ती चली गई थीं।
¶¶
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus