आगे पीछे मौत
सुनील प्रभाकर
"क्यों बे? दिनभर में बस दो सौ रुपये ही कमा पाया? इससे क्या होगा?"
उसने आतंकित नेत्रों से सामने खड़े व्यक्ति को देखा। उसका चेहरा पीला हो गया। डर के कारण उसके पैर कंपकंपा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे कोई आदमी न होकर यमदूत हो। वैसे वह शख्स देखने में था भी यमदूत जैसा। नीली जीन्स और काली जैकेट में उसका लम्बा और मजबूत शरीर किसी पहाड़ के समान खड़ा था।
सांवला रंग, सपाट चेहरा, सिर के बाल छोटे-छोटे, आंखें एकदम गोल—जैसे सांप की हों—चमकदार। नाक तोते जैसी, होठ पतले और माथा संकरा।
"बोलता क्यों नहीं हरामी के पिल्ले।" वह फुंफकारा।
लड़के ने थूक निगला लेकिन उसके मुंह से कोशिश के बाद भी आवाज नहीं निकल सकी थी।
"बेनी?" वह व्यक्ति दहाड़ा।
"आया बॉस।" बाहर से आवाज आयी—दूसरे पल चेहरे से खतरनाक लगने वाला एक युवक केबिन में दाखिल हुआ।
"यह साला तो रोजाना ही गड़बड़ कर रहा है।" वह व्यक्ति बेनी की ओर देखकर गुर्राया—"एक हफ्ते से साला इसी प्रकार की कमाई करके ला रहा है।"
"सुबह इसको काफी समझा-बुझाकर भेजा था।" बेनी लड़के को हिकारत से देखता हुआ बोला था—"और आज ही क्यों, रोजाना समझाता हूं—मगर यह सुधर ही नहीं रहा है। रात में इसको तोते की तरह पढ़ाता हूं। उस समय तो साला हूं-हां करता रहता है। खोपड़ी भी हिलाता रहता है। जाते समय भी समझाता हूं परन्तु...।"
"जानते हो, इधर एक महीने से हमारी आमदनी में कमी आती जा रही है?"
"जी।"
"सभी छोकरे कम पैसा ला रहे हैं।"
"जी।"
"कल बॉस ने टोका भी था।"
"आपने मुझसे कहा भी था।" बेनी ने खोपड़ी सहलायी—"मैंने सभी लड़कों से बात की थी। लड़कों का कहना है कि मोटे शिकारों में कमी आ गयी है।"
"क्या बकते हो?" वह गुर्राया।
"म-मैं नहीं उस्ताद।" बेनी सकपकाकर जल्दी से बोला—"लड़कों का कहना है। शिकार तो मिलते हैं मगर जेबों में पहले की तरह रकम नहीं मिलती। दस-बीस पचास रुपये से ज्यादा पैसा लोग जेबों में रखते ही नहीं हैं। पर्सों में सामानों की लिस्ट या बिल ज्यादा मिलते हैं।"
"भीख मांगने वालों की क्या स्थिति है?"
"उनकी आमदनी भी घटी है।"
"क्या बेवकूफी की बात है?" वह झल्ला गया—"तू जानता है बॉस से अगर मैंने यही बात कही तो गोली मार देगा मुझे।"
"रामलाल कहां है?" वह आगे बढ़कर कुर्सी में धंस गया था और मेज पर पड़े सिगरेट के पैकेट को उठाकर उसमें से एक निकाली और सुलगाने लगा। उसका चेहरा चिन्तित लगने लगा था।
बेनी चुपचाप खड़ा था।
"बोलता क्यों नहीं बे?"
"वो हिसाब जोड़ रहा है।"
"और जफर?"
"वो भी हिसाब लगा रहा था, बैठें।"
"इस साले को भगाओ यहां से—साले का चेहरा तो देखो जैसे अम्मा मर गयी हो। हरामियों को बढ़िया खाना, बढ़िया कपड़े और खर्चा मिलता है उसके बाद भी कमाई के नाम पर नानी मरती है।"
"जा भाग यहां से।" बेनी चिल्लाया।
वो लड़का हड़बड़ाकर केबिन से बाहर निकल गया।
¶¶
पण्डित रामनारायण पाठक ने दीपा मेहता की ओर देखते हुए पूछा—"कल के कौन-कौन अपाइण्टमेंट्स हैं उनका ब्योरा लिख दिया है न?"
"यस सर...।"
"कल तुमको छुट्टी चाहिए न?"
"बहुत जरूरी है सर, वर्ना मैं...।"
"अरे भई, मैंने मना तो नहीं किया है। हालांकि तुम्हारे न रहने से मेरा कार्यक्रम हमेशा गड़बड़ा जाता है। वैसे परसो कब तक आ जाओगी?"
"दोपहर तक।"
"लड़का क्या करता है?"
"डॉक्टर है।"
"लखनऊ में ही है?"
"जी—अच्छी प्राइवेट प्रैक्टिस है। मां-बाप के अलावा एक छोटा भाई है बस। मैं समझती हूं मेरी बहन उस परिवार में काफी सुखी रहेगी। इन्टर्नशिप के बाद वह भी डॉक्टर हो जायेगी और यह सब आपके कारण हो पाया है। अ-आपने अगर मदद न की होती तो शायद मैं तो बर्बाद हो ही जाती—मेरी बहन का जीवन भी तबाह हो गया होता और मां मर गयी होती।" दीपा ने कहा—"मुझे आपने...।"
पण्डित रामनारायण पाठक ने हाथ उठाकर दीपा को बोलने से रोका—"देखो दीपा, मैंने तुम्हारे लिये मुफ्त कुछ नहीं किया—तुमने भी मेरे लिये छह सालों में बहुत कुछ किया है। एक म्युचुअल अण्डरस्टैंडिंग, हम दोनों के बीच है। तुमने ईमानदारी से उसका पालन किया है। मैंने भी कोशिश की है कि मेरी ओर से तुमको कोई कष्ट न हो। इसे दुनियादारी कहते हैं। इस हाथ ले और उस हाथ दे—आज का यही दस्तूर है।"
"आप ठीक कहते हैं।" दीपा ने सपाट स्वर में कहा।
"जाने का क्या कार्यक्रम है?"
"बस पर्स और अटैची लेनी है।"
"कार लेती जाओ।"
"लेकिन आपको तकलीफ होगी।"
"कोई तकलीफ नहीं होगी। तुम गाड़ी के साथ पाल को लेती जाओ। फिर कल तो वापस आ ही जाना है।"
"जी।"
"पैसा रख लिया है?"
"जी हां।"
"अगर कोई बात हो तो फोन कर देना। पैसों की चिन्ता मत करना—लखनऊ मैंने मनसुखा को फोन कर दिया है। वह रहेगा कार्यक्रम में—मैं समझता हूं उसके रहते कोई दिक्कत नहीं होगी।"
दीपा कुर्सी से उठ गयी थी।
वह पण्डित रामनारायण पाठक के समीप पहुंची। धीरे से झुकी और कोमलता के साथ उनके होठों का चुम्बन लिया, सीधे होकर मुस्करायी। फिर मुड़कर बाहर की ओर बढ़ गयी।
¶¶
"बेनी—जाकर सभी से कह दो कि आज की आमदनी दे जायें—रात दस बजे तक बॉस को जाकर रकम पहुंचानी है। देर होने पर मेरी खाट खड़ी हो जायेगी—जाओ, जल्दी करो।"
बेनी बाहर चला गया था।
उस्ताद का यानी जयपाल का पूरा नाम जयपाल शर्मा था।
वह सहारनपुर के एक सामान्य ब्राह्मण परिवार का तीसरा पुत्र था। पिता कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे तथा प्रवचन, कथा और शादी-ब्याह करवाकर घर का खर्च चला रहे थे। उसके दो बेटे तो पढ़ाई-लिखाई में तेज थे, सो पढ़ गए थे लेकिन जयपाल नहीं पढ़ पाया। उसकी संगत गलत लोगों के साथ हो जाने के कारण वह बिगड़ता चला गया था और फिर उसकी हरकतों से तंग आकर बाप ने उसे घर से निकाल दिया था।
घर से निकाले जाने के बाद वह और स्वतन्त्र, और उच्छृंखल, और ज्यादा बिगड़ता चला गया था। उसकी प्रवृत्ति अपराधी होती चली गयी थी। चोरी, लूटमार, स्मगलिंग, शराबनोशी, मादक पदार्थों का सेवन भी करने लगा था। फिर वह एक गिरोह में शामिल हो गया। उसी दौरान उससे कत्ल भी हो गए थे और वो पुलिस का वान्टेड अपराधी बन गया था। बाप ने अखबारों में अपने बचाव के लिये वकील के जरिये सम्बन्ध विच्छेद का विज्ञापन छपवा दिया था, क्योंकि बाप को भय था कि बेटे की करतूतों के लिये पुलिस परेशान करेगी। पुलिस का दबाव दिन पर दिन जयपाल पर बढ़ता ही जा रहा था।
और अचानक एक कार दुर्घटना में, जब पुलिस उसको पकड़ने के लिये पीछा कर रही थी, जलकर मौत हो गयी थी। कार के इंजन में आग लग जाने के कारण इंजन में विस्फोट हो गया था। पुलिस को विस्फोट के बाद किसी शरीर के जले अवशेष मिले थे। पुलिस ने मान लिया था जयपाल कार दुर्घटना में मारा गया है फलस्वरूप उसकी फाइल दाखिल दफ्तर हो गयी थी।
जबकि वास्तविकता कुछ दूसरी थी।
जयपाल ने पुलिस से बचने के लिये पूरा प्लान बनाया था। एक मुर्दा शव को अपने कपड़े पहनाकर कार लेकर भागने के बाद, उसने कार को एक पेड़ से टकराने के बाद, कार के इंजन में आग लगा दी थी और सहारनपुर से फरार हो गया था। वहां से भागकर वह इस शहर में आ गया था। सहारनपुर में जिस गैंग में वह काम करता था—उस गैंग के सरदार की सिफारिश के साथ आया था इसलिये उसको भटकना नहीं पड़ा था। यहां भी उसकी हैसियत, जिस गैंग में था, अच्छी थी। उसे इन्चार्ज बना दिया गया था। गैंग का मुखिया माखनलाल सिन्धी था।
एक सफल व्यापारी, कई नम्बर एक के धन्धों का मालिक और करोड़पति। समाज के प्रतिष्ठित लोगों के बीच सम्मान और हैसियत रखने वाला। उसके नम्बर दो के धन्धों का इस समय जयपाल चीफ कन्ट्रोलर था। बल्कि प्रत्यक्ष में वही मालिक भी समझा जाता था। उसका अपराध जगत में अपना रौबदाब था। हनक थी।
जयपाल के जिम्मे कई विंग थे, उनमें नये-नये लड़कों को फांसकर जेबकतरा बनाना, कुछ लड़कों के हाथ-पैर तोड़कर उनसे भीख मंगवाना, कुछ लड़कों से मादक पदार्थों की अवैध बिक्री करना, अवैध शराब की बिक्री आदि। प्रत्येक सप्ताह के शनिवार को आमदनी का धन और हिसाब उसे सिन्धी तक पहुंचाना पड़ता था। गिरोह के लोग बॉस कोई है इतना ही जानते थे। कौन है, यह नहीं। इसे केवल जयपाल ही जानता था।
¶¶
"इस हफ्ते इतनी ही रकम आयी है?" जयपाल ने सामने खड़े कैशियर डेविड को देखा।
बेनी भी उसके पास ही खड़ा था।
"केवल साढ़े पांच लाख?"
"जी।"
"यह तो पिछले हफ्ते से भी कम है?"
"आपके सामने रजिस्टर रखा है दादा—आप चैक कर लें।" डेविड ने कहा—"अगर हफ्ते भर का खर्च जोड़ लें तो लगभग पांच लाख होता है। पिछले दो महीने से पुलिस के कारण मामला गड़बड़ हो रहा है। इसका कारण भी आपको मालूम है।"
जयपाल ने सिगरेट का कश लिया—"बेनी जरा पैग बना। मूड खराब हो रहा है।"
बेनी केबिन में ही रखी सेफ के पास पहुंचा। उसे खोलकर उसने बोतल निकाली, और कोने में रखी छोटी-सी मेज के समीप पहुंचकर उस पर रखे गिलासों में से एक गिलास में शराब डाली, आइस बाक्स से बर्फ के टुकड़े निकालकर डाले और गिलास लाकर जयपाल के सामने मेज पर रख दिया था।
"कुछ खाने के लिये लेंगे?" बेनी ने पूछा।
"निकाल ला कुछ।"
बेनी ने एक प्लेट में काजू, अखरोट, मूंगफली के दाने लाकर रख दिये और मेज के समीप आकर खड़ा हो गया था।
"तुम लोग भी अपने गिलास बनाकर ले आओ।" एक लम्बा घूंट लेकर जयपाल बोला—"यह गम्भीर बात है कि हमारी आमदनी हर हफ्ते घट रही है। बॉस हम लोगों की खाल खींचकर रख देगा। खर्चों के लिये बॉस कभी मना नहीं करता है लेकिन आमदनी कम नहीं होनी चाहिए।"
बेनी दो गिलास बना लाया।
एक गिलास उसने डेविड को पकड़ा दिया।
"बैठ जाओ।" जयपाल ने कहा।
दोनों बैठ गए।
"आमदनी कम होने के बारे में...।" जयपाल कहते-कहते रुक गया था क्योंकि फोन की घण्टी बजने लगी थी।
जयपाल ने फोन को घूरा था। उसे घण्टी का बजना बुरा लगा था मगर रिसीवर तो उठाना ही था।
"हैलो?" उसने माउथपीस पर कहा।
"क्या कर रहे हो?"
वह चौंक गया था—फिर सम्भलकर अदब से बोला—"यहां से निकलने की तैयारी कर रहा था बॉस।"
बेनी और डेविड हड़बड़ाकर खड़े हो गए थे।
"कितनी देर में आ सकते हो?" आवाज आयी—"वड़ी तेरी सख्त जरूरत है साईं—जल्दी आ जा।"
"जी, कोई खास बात है क्या?"
"वड़ी तू खोदखाद बहुत करता है। बुरी बात है तेरे भीतर।"
"स-सारी बॉस।" वह सकपकाया था।
"मुझे पता है साईं, आजकल तू आमदनी की कमी को लेकर परेशान रहता है।"
"ज-जी हां।" जयपाल हतप्रभ-सा बोला। उसकी खोपड़ी घूम गयी थी। उसकी समझ में नहीं आया कि यहां की बात बॉस को कैसे मालूम हो जाती है?
कई बार ऐसा हो चुका था और हर बार वह चकित होकर रह जाता था। उसने कई बार इस बात का प्रयास किया था कि बॉस के उस सूत्र का पता उसको चल जाए मगर काफी कोशिशों के बाद भी वह सफल नहीं हो पाया था। अलबत्ता इस बात को उसने किसी पर जाहिर नहीं किया था मगर अपने काम में सतर्क रहने लगा था।
"इस हफ्ते भी कम पैसा बटोरा है छोकरों ने। क्यों?"
"यस बॉस।" वह हकलाया था।
"तो तू करता क्या है रे? सालों को कड़ा कर दे। एक-दो को ठोक-पीट दे। उन पर अपना भय पैदा कर। तू तो छोटी लाइन का आदमी है। टैरराइज कर साईं। ऐसे कैसे काम चलेगा?" इस बार सिन्धी की आवाज में हिंसा का भाव आ गया था—"वड़ी तू पहले ही वाला जैकी है न?"
उसके शरीर में चींटियां-सी रेंगने लगीं।
"म...मैं...।"
"बकरी की तरह मिमिया नहीं साईं। मुझे शेर चाहिए—बकरी नहीं—समझा जैकी?"
उसने अपने को सम्भाला।
"समझ गया बॉस—समझ गया।"
"तो फिर रोकड़ा लेकर आ जा। तुझसे और भी बातें करनी हैं—जो फोन पर नहीं की जा सकतीं।"
"मैं आता हूं बॉस।"
"स्टार्ट हो जा पट्ठे।"
लाइन कट गयी।
जयपाल ने रिसीवर रखकर हथेली से चेहरे पर आ गया पसीना पौंछा और बेनी तथा डेविड की ओर देखा। उन दोनों के चेहरे फक्क थे।
जयपाल ने एक झटके में गिलास खाली किया और उठकर खड़ा हो गया—"आज छोकरों की कसाई कर देना। हरामियों के कारण डांट पड़ गयी। साले सीधी बोली समझते ही नहीं हैं। आज मुल्लू को पकड़कर रखना। लौटकर सवारी गांठूंगा।"
दोनों ने सिर हिलाया सहमति में और उठ गए।
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